Wednesday, October 31, 2012

अब ऐसे भ्रष्टाचार का क्या इलाज है?

इसके ऊपर तो भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम भी लागू नहीं हो सकता, न ही इसकी कहीं शिकायत हो सकती और अगर हो भी सकती होगी तो शायद ही कोई कार्रवाई सम्भव होगी.

मामला यूँ है कि एक मशीन खराब हो गयी. मशीन वारन्टी में थी. जो गडबड़ी आई थी वह अज्ञानतावश कम लुब्रिकेटिंग ऑइल के चलते आयी. मामला यूँ ही कुछ दिनों खिंचा. बाद में स्टीमेट आया जो लगभग पचास हजार रुपये का था. देखा तो यह पाया कि सोलह-सत्रह हजार लेबर चार्ज और बाकी के कल-पुर्जे. अब यह निर्णय हुआ कि वारन्टी में चलते कम से कम लेबर चार्ज तो न लिये जायें. मालिक से बात करने के लिये मशीन के स्वामी ने अपने एक कर्मचारी को दुकान पर भेजा. उन सज्जन ने वहाँ मौजूद इन्चार्ज से बात- चीत की लेकिन कोई नतीजा न निकला. वारन्टी के चलते इनकी माँग थी कि सबकुछ हटाया जाये या कम से कम लेबर चार्ज तो हटा ही लिया जाये. वहाँ का इन्चार्ज एक पैसा कम करने को तैयार न हो.

जब बात नहीं बनी तो दुकान के मालिक को बुलाया गया. अब ये संयोग हुआ कि मालिक उन भेजे गये कर्मचारी का पूर्व परिचित निकल आया. पूरी बात बतायी गयी. मालिक ने वहाँ के इन्चार्ज से बात की. यह सम्भावना देखी कि कौन सी चीज कम हो सकती है. नतीजा हुआ कि वही बिल मात्र चौदह हजार का रह गया. अर्थात पूरे छत्तीस हजार की कमी. स्पष्ट है कि जितनी चीजें पहले स्टीमेट में दिखाई गई थीं, वह लगनी ही नहीं थीं. वास्तविक व्यय तो चौदह हजार ही का था किन्तु उसे इन्फ्लेट कर पचास हजार का कर दिया था, जिसमें मालिक-नौकर सब शामिल थे.

अब अगर वह जान-पहचान का संयोग न होता तो दो-चार हजार या फिर अधिकतम लेबर चार्ज कम हो जाते लेकिन फिर भी सही राशि से ढाई गुना पैसा अधिक देना पड़ता. प्रश्न यह उठता है कि क्या यह भ्रष्टाचार नहीं है और इस भ्रष्टाचार की पहचान कैसे हो. इस भ्रष्टाचार के ऊपर कौन सा क़ानून लागू होता है और कौन सी धारा. उपभोक्ताओं के हो रहे, इस प्रकार के शोषण के विरुद्ध, इस भ्रष्टाचार के विरुद्ध कोई भी उपाय उपलब्ध ही नहीं. 

Tuesday, October 30, 2012

घूस माँगी जा रही है-कहने वाला निलम्बित और सिपाही की हत्या का मामला निपटा...

आज सुबह यह खबर पढ़ी कि एक पुलिस उपाधीक्षक वी० के० शर्मा को इसलिये निलम्बित कर दिया गया क्योंकि उन्होंने अनुशासनहीनता की थी और जून में एक मीटिंग में देर से पहुँचने पर यह कहा था कि "सरकार ने हेलीकाप्टर नहीं दिया है."  यह उपाधीक्षक ५८ वर्ष से ऊपर के हैं और पिछले ११ माह में पाँच स्थानान्तरण झेल चुके हैं. ताजा मामले में उन्होंने ट्रान्सफर पोस्टिंग को लेकर डी०जी०पी० समेत कई अफसरों पर रिश्वत माँगने के आरोप लगाये हैं.  

चौकी-थानों से लेकर ऊपर तक न जाने कितनी ही बार अखबारों में पढ़ने को मिलता है कि फलां जगह ऐसे पोस्टिंग हुई, वैसे पोस्टिंग हुई. मलाईदार पोस्टिंग को लेकर भी खूब निकलता रहता है. इस मामले में भी कोई जाँच वगैरह किये बिना ही अनुशासनहीनता मानते हुये निलम्बन की कार्रवाई कर दी गई. और अगर जाँच भी होती तो कौन करता. जब मुखिया के ऊपर ही आरोप हों तो फिर उनकी जाँच कौन करे. मंत्रियों के ऊपर भी आरोप लगे और कुछ को तो जेल भी जाना पड़ा लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात.

दूसरी खबर यह कि लखीमपुर में एक सिपाही को बदमाश ने गोली मार दी और फिर बदमाश को पुलिस ने मार गिराया. चलिये, तुरन्त ही इन्साफ हो गया. क्यों? क्योंकि क़ानून चलाने वाले पुलिस वाले, इसलिये जब क़ानून को चलाने वाले पर हमला होता है तो तुरन्त ही पुलिस को अपने अस्तित्व पर खतरा नजर आने लगता है. लेकिन यही पुलिस आम आदमी के मामले में क्यों उदासीन रवैया अपनाये रहती है, जिसका साक्षात प्रमाण है लाखों हत्याओं में कातिलों को न खोज पाना या/और उन्हें सजा न हो पाना. आखिर अपराध तो अपराध है, हत्या तो हत्या है, एक आम आदमी की हो या फिर पुलिस वाले की. 

दर-असल इस अपने - पराये रवैये ने ही सारे सिस्टम को खोखला कर दिया है. हर व्यक्ति अपने मामले को अलग नजरिये से देखता है और सामने वाले के मामले को अलग नजरिये से, और यह स्थिति तब और खतरनाक हो जाती है जब यही रवैया पुलिस और प्रशासन में बैठे लोग अपना लेते हैं जो न्याय दिलवाने के लिये प्रथम सीढ़ी होते हैं. कभी कभी तो बड़ा ताज्जुब होता है कि क्या हम वाकई उन लोगों के वंशज हैं जिन्होंने अपनी हड्डियाँ तक दान कर दी थीं, राक्षसों के विनाश हेतु. अथवा यह सब कपोल कल्पित है जो हमने सिर्फ अपनी वाहवाही लूटने के लिये गढ़ लिया है या फिर कोई भयंकर जिनेटिक गडबड हो गई है.

Thursday, October 25, 2012

और अब फैजाबाद में हिंसा

लिंक यह है. दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन पर यात्रा के दौरान माँ हट्टी महरानी के मंदिर के पास समुदाय विशेष के लोगों ने शोभायात्रा देखने आयीं महिलाओं के साथ अभद्रता की और इसके बाद फिर मारपीट, तल्खी फिर तनाव और आगजनी. आखिर क्यों समुदाय विशेष की ही भावनायें ऐसा जोर मारती हैं, फिर चाहे वे उनके त्योहार हों या फिर समुदाय अविशेष के. जहाँ बात बात में धार्मिक दिशा-निर्देश जारी किये जाते हों, वहाँ इस बात के लिए क्यों नहीं किये जाते कि किसी भी हालत में हिंसा न की जाये, मारपीट न की जाये. क्या शान्ति के पथ पर चलने वाले इसी तरह की शान्ति लाना चाहते हैं. आखिर कब तक इस तरह की घटनायें सभ्य समाज में होती रहेंगी और कब तक इन्हें नासमझी में, भावनाओँ के आवेग में हुई मानकर नेगलेक्ट करना चाहिये. क्या ऐसे तत्वों के खिलाफ ऐसी अनुकरणीय कार्रवाई नहीं होना चाहिये कि आने वाले समय में कोई भी व्यक्ति इस तरह का दुस्साहस न कर सके.

Wednesday, October 24, 2012

भूकम्प की भविष्यवाणी में खोट और छ: साल की चोट.

इटली में एक भूकम्प आया जिसकी भविष्यवाणी मौसम विज्ञानियों ने कर दी. लेकिन तीव्रता का सही आँकलन न कर सके. २००९ में आया यह भूकम्प ६.३ तीव्रता का था जिसके कारण काफी तबाही हुई. अब वहाँ  कुछ लोगों ने इन मौसम विज्ञानियों के विरुद्ध मुकदमा दर्ज कराया गया. मुक़दमे की सुनवाई में यह निष्कर्ष निकला कि ये मौसम विज्ञानी भ्रामक और अधूरी जानकारी देने के दोषी हैं. नतीजतन छ: साल का कारावास दिया गया.

अब भारत में इसकी कल्पना कर के देखिये. 

Saturday, October 20, 2012

घूस का जस्टिफिकेशन

"घूस क्यों लेते हो, सैलरी तो मिलती है", एक सज्जन ने अपने मित्र से कहा. सज्जन व्यापारी हैं और उनके मित्र एक स्थानीय निकाय में बाबू.
"आप लोग टैक्स देते हो जिससे सरकार सड़क, पुल इत्यादि बनवाती है" मित्र ने पूछा.
"हाँ" - सज्जन ने उत्तर दिया.
"फिर टोल टैक्स किस लिए देते हो" मित्र ने सवाल दागा.
"अरे भाई, सड़क अच्छी होती है, गड्ढे नहीं होते, जल्दी पहुँच जाते हैं. अच्छी सुविधा रहती है" सज्जन ने उत्तर दिया.
"बिलकुल यही बात लागू होती है, घूस के बारे में. काम जल्दी हो जाता है, बढ़िया हो जाता है, तुम्हें अच्छी सुविधा मिल जाती है. सरकार अच्छी सड़क बनवा देती है तो टोल टैक्स ले लेती है और हम अच्छा काम कर कुछ ले लें तो घूस." मित्र ने जस्टिफाई किया.

उक्त वार्तालाप कुछ दिनों पूर्व एक स्थानीय निकाय में दो अन्तरंग मित्रों के बीच हो रहा था जिसे  मैं संयोगवश सुन सका.

क्या अब भी आशा की किरण दिख रही है.

Saturday, October 13, 2012

आटा मंहगो हो रह्यो, फेरी खायगो कब..

कुछ महीनों पहले किसान ने गेहूँ बेचा था ११०० रुपये कुंतल. इस समय यही गेहूँ बिक रहा है १५०० रुपये को और आटा पहुँच गया है २५ रुपये किलो. तस्वीर बिलकुल साफ है, किसान का सब गेहूँ पहले ही बिक चुका है, बल्कि कहिये कि किसान को तो हर हाल में अपनी फसल को बेचना ही है, क्योंकि उसपर कर्ज है, उसके पास स्टोरेज नहीं है. सारा गेहूँ बिचौलियों ने खरीद लिया और अब वही गेहूँ पैंतीस प्रतिशत मुनाफे पर बाजार में बिक्री हेतु उपलब्ध है. आटे की शक्ल में पहुँचते पहुँचते दुगुने से ऊपर. इस भ्रष्टाचार पर कौन नकेल लगायेगा. तिस पर मंत्री जी कहते हैं कि महंगाई अच्छी है, किसान को फायदेमन्द है. पता नहीं वह कौन सा फार्मूला है जिससे किसानों को लाभ मिल रहा है और वे कौन से किसान हैं जिन्हें लाभ मिल रहा है. 

Wednesday, April 11, 2012

प्रलय तो भारत ही में होगी ...थोड़ा सा इंतजार करें....

भारत की अबाध रूप से बढ़ती जनसँख्या को लेकर मुझे बड़ी चिंता होती है. हालाँकि कई लोग मजाक में यह भी कहते हैं कि इस बारे में वही लोग चिंतित रहते हैं जो पैदा होते हैं. चिंता करने के मामले में मैं सरकार से कम नहीं. सरकारें भी चिन्त्तित होती रहती हैं, विधायक से मंत्री तक और मुख्य तथा प्रधानमंत्री जी भी कभी कभार चिंता जताते हैं, लेकिन इस मामले में मैं उनसे कहीं आगे हूँ. 
भारत की जनसँख्या पिछले सत्तर वर्षों में तीन गुने से अधिक हो चुकी है. बढ़ती जनसँख्या की आवश्यकताओं में एक बड़ी महत्वपूर्ण आवश्यकता है आवास की. आवास बनाने के लिए जरूरत है जमीन की और फिर जमीन पर मकान बनाने के लिये ईंटों की. बहुत पुरानी बात नहीं करता, लेकिन यदि पच्चीस वर्ष पहले की तरफ लौटा जाए तो स्पष्ट पता चलता है कि शहरों का दायरा चार गुना तक बढ़ गया है. जहाँ कभी लहलहाते खेत हुआ करते थे, वहाँ अब सीमेंट की इमारतें बनी खड़ी हैं.  जाहिर है कि जब मकान बनाने के लिए खेत काम में आ रहे हैं तो  फिर खेत कहाँ से आयेंगे? इसलिए नए खेत आ रहे हैं जंगलों और बागों को उजाड़ कर. पुरखों के लगाये हुए बाग लोगों ने काट दिए, सिर्फ वे ही बाग बचे रह गए जो आर्थिक दृष्टि से लाभदायक थे, जिनमें फलदार वृक्ष लगे थे. बाग कटने लगे, जंगल कटने लगे और इसका प्रभाव सीधे सीधे पर्यावरण पर पड़ रहा है जिसके दुष्प्रभाव प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से पड़ने लगे हैं.
गिद्ध लुप्त होने लगे. मृत मवेशी अब लंबे समय तक दुर्गन्ध देते हुए  देखे जा सकते हैं. बन्दर अब शहरों-गाँवों में घरों में घुसकर उत्पात मचाते हुए रोज ही दिखाई देने लगे हैं. जंगली कुत्ते भी अब मासूम बच्चों पर हमला करने लगे हैं. लगभग प्रतिदिन इस तरह की ख़बरें समाचार पत्रों में पढ़ने को मिल जाती हैं.  कहीं जंगली जानवर मनुष्यों पर हमला कर रहे हैं तो कहीं आबादी में आने वाले जानवरों यथा हिरण इत्यादि को मनुष्य अपना शिकार बना रहा है.
इस प्रकार जंगल कटे, खेत बने और खेतों को साफ कर मकान बनाने के लिए जमीन तैयार की गयी. अब मकान बनाने के लिए आवश्यकता होती है, ईंटों की. ईंटों के लिए मिट्टी की. ईंट भट्टे वाले ईंट पाथने के लिए किसानों से मिट्टी खरीद लेते हैं. और आप यह आसानी से देख सकते हैं कि इस वजह से खेत कई-कई फुट गहराई में जा चुके हैं. लाचार किसान को अपने भरण पोषण के लिए खेत की उपजाऊ मिट्टी को बेचना ही एकमात्र विकल्प होता है.  मिट्टी की यह ऊपरी परत सबसे अधिक उपजाऊ होती है जो ईंट भट्टों में जाकर ईंटों की सूरत में बदल जाती है. कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि खेत से पैदा होने वाले उत्पाद की वैल्यू कम होती जा रही है और खेत को बेचना फायदे का सौदा होता जा रहा है.
अब जिन खेतों से मिट्टी निकल जाती है उनकी सतह नीचे हो जाती है. परिणामस्वरूप बरसात के दिनों में इन खेतों में पानी भर जाता है और ये खेत तालाब में तब्दील हो जाते हैं.  इस प्रकार धीरे धीरे ये कृषि क्षेत्र अपना स्वरूप खोते जा रहे हैं. आप सड़क के दोनों तरफ ऐसे तालाबों को देख सकते हैं जो ईंटों के लिए मिट्टी निकालने से बने हैं. और यही सब प्रलय के लक्षण हैं. कल ही पढ़ा था कि बंगलौर में पानी की उपलब्धता में कमी हो रही है. पूरे देश में पानी का लेवल नीचे जा रहा है. प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध दुरूपयोग हो रहा है. बढ़ती हुई जनसँख्या को रहने को घर भी चाहिए और खाने को अन्न भी. लेकिन जब खेतों में मकान बनने लगेंगे और किसान के खेत की मिट्टी ईंटों में बदल जायेगी, साल में छह महीने खेत पानी भरा होने के कारण बेकार हो जायेंगे, अधिकांश क्षेत्र पानी के मामले में डार्क जोन में आ जायेंगे,  तो इस बढ़ती हुई जनसँख्या के लिए कहाँ से अन्न मिलेगा, कैसे पानी की व्यवस्था होगी और रहने के लिए जमीन कहाँ से आएगी. यदि इस बढ़ती जनसँख्या को रोकने के लिए अविलम्ब कदम नहीं उठाये गए तो फिर प्रलय तो भारत में होगी ही.  

Saturday, April 7, 2012

जरदारी साहब आपका स्वागत है लेकिन

स्वर्गीय कैप्टन  सौरभ कालिया की याद है आपको जिसके मृत शरीर को आपके सैनिकों ने अंग-भंग कर भारत को दिया था, उसके क्रूर संहारकों के लिये क्या करेंगे आप?

आपके लिये पलक-पांवडे बिछा दिये गये हैं लेकिन कश्मीरी आतंकवादियों को अस्त्र-शस्त्र मुहैया कराना कब बन्द करेंगे?

हर मंच पर कश्मीर की आजादी का राग अलापना कब बन्द होगा और अलगाववादियों को हर प्रकार का समर्थन देना बन्द कब करेंगे?

हाफिज सईद समेत अनेकों आतंकवादी आपके यहां पनाह लिये हुये हैं, कब आप उनके खिलाफ कोई कार्रवाई करेंगे?


Thursday, March 8, 2012

और अब नरेन्द्र कुमार

सत्येन्द्र कुमार की याद है आपको, वही इन्जीनियर जिसने बाजपेई जी को चिट्ठी लिखकर सड़क के निर्माण में हो रहे घोटालों की जानकारी दी थी. क्या हुआ, मार दिया गया उन्हें. इसके बाद लखीमपुर में इन्डियन आयल कारपोरेशन के अधिकारी मन्जूनाथ, फिर कुछ महीनों पहले सोनावणे को महाराष्ट्र में जिन्दा जला दिया गया और अब मध्य प्रदेश में आईपीएस अधिकारी नरेन्द्र कुमार को ट्रैक्टर से कुचल कर मार दिया गया. एन आर एच एम घोटाले में जाने कितनी हत्यायें हो चुकी हैं. दो दिन पहले खबर आ रही थी कि सपाइयों ने पत्रकारों को कमरे में बन्द कर दिया और आज यह कि सीतापुर में सपा समर्थकों ने निर्दलीय प्रत्याशी के समर्थकों के घर में आग लगा दी. घूम फिर कर जड़ में एक ही चीज है और वह है भ्रष्टाचार. जो सरकारी कर्मचारी इसके खिलाफ है उसकी जिन्दगी खतरे में.  और यही कारण है कि लोगों का मोहभंग होता जा रहा है सही काम करने से, ईमानदारी से काम करने में. कमाऊ विभागों में ईमानदार से न तो जनता खुश होती है और न अधिकारी. क्योंकि लोग भी बड़े समझदार हो चुके हैं, पैसा फेंको-तमाशा देखो पर यकीन करते हैं. घर में व्यवसाय चलायेंगे और मुनाफा कमायेंगे, लेकिन टैक्स देंगे घरेलू का, बिजली का बिल भरेंगे घरेलू का. खुद भी प्रसन्न और इसके बदले में दक्षिणा देकर मामले को निपटा लेंगे, अधिकारी भी प्रसन्न.

फिर क्यों कोई सरकारी अमला अपनी जान हथेली पर रखे, किसके लिये. इन्साफ की बात मत करिये, न्याय की बात मत करिये. जो अपराध करता है, वह सक्षम होता है. उसके पास धन की कमी नहीं, जुगाड़ की कमी नहीं, उसके पास सम्पर्क मौजूद होते हैं. पहले पहल तो इन्वेस्टिगेटिंग आफीसर ही मामले को तोड़ने-मरोड़ने की पूरी क्षमता रखता है, और कहीं विवेचनाधिकारी अपवाद निकल आया तो राजनीतिक दबाव, उच्चाधिकारियों का प्रेशर. इस सबसे उबरने के बाद मुकदमे की लम्बी मियाद. जहां आरोप निर्धारण में ही कई वर्ष लग जाते हों और फिर उसके बाद वकीलों के दांव-पेंच, और इस सब के बाद मुकदमे के लिये कोई समय-सीमा नहीं. दस साल-बीस साल, पता नहीं. एक IPS के स्थान पर IPS ही आयेगा, एक IAS का स्थान IAS ही लेगा, और फिर ऐसा भी नहीं कि सत्ता के दबाव न मानने पर IAS/IPS को नौकरी से निकाल दिया जायेगा, फिर क्या कारण हैं कि प्रशासन के यह लौह स्तम्भ राजनीतिक दबाव के आगे झुक जाते हैं. जिले की पोस्टिंग अच्छी मानी जाती है और मुख्यालय की खराब, जबकि वेतन-भत्ते एक समान ही रहते हैं. फिर?  कुछ न कुछ तो ऐसा है जिसके चलते जिले की पोस्टिंग अच्छी मानी जाती है. यदि एक अधिकारी दबाव न मानकर स्वेच्छा से जिला छोड़ने को तैयार है तो उसकी जगह लेने को दस अधिकारी तैयार खड़े हैं. 

यह सिस्टम अंग्रेजों ने भारतीयों पर शासन करने के लिये बनाया था, जिसमें अधिकारी क्राउन के प्रति समर्पित थे, और इसीलिये  उनका व्यवहार भी राजा की तरह होता था. और वही सिस्टम आज भी कायम है, समर्पण जो होना चाहिये संविधान के प्रति, नियम-कानून के प्रति, वह समर्पण है सत्ता के प्रति. मैं अपवादों की बात नहीं करता क्योंकि अपवाद तो रासायनिक अभिक्रियाओं में भी मिल जाते हैं. जलवा होना चाहिये कानून का, लेकिन होता है वर्दी का-डण्डे का. और स्थिति तभी सुधरेगी जब सरकारी अमला संविधान के प्रति, नियम-कानून के प्रति पूर्णतया समर्पित हो जायेगा. देखिये वह सुबह कब आती है.

Tuesday, February 28, 2012

नदियों में विसर्जित प्रदूषण .



धार्मिक कार्यक्रमों के नाम पर नदियों में कचरा फैलाना भी अनुचित है और उद्योगों द्वारा जो नदियों में जहरीला अपशिष्ट मिलाया जाता है वह भी अक्षम्य अपराध है. मेरे एक सम्बन्धी ने बताया है कि अमेरिकी समुद्र में "एक बूंद" जी हां आप एक बूंद भी तेल की नहीं गिरा सकते. ऐसा नहीं है कि हमारे देश में कानूनों की कमी है, कोई न कोई नियम-कानून तो हर किसी मामले पर होगा, लेकिन लागू करवाने वाले कैसे हैं, यह मुद्दे की बात है. वह भी शीर्ष पर. अब यह मत कहियेगा कि जिम्मेदारी तो जनता की भी है, स्वयं ही रेग्युलेट होना चाहिये. अगर सभी लोग स्वयं ही रेग्युलेट हो जाते तो फिर किसी भी सरकारी गैर-सरकारी नियमन/विधेयन की आवश्यकता ही नहीं होती. फिर यदि लोग स्वत: अनुशासित हो जायें तब भी उद्योग जो प्रदूषण फैला रहे हैं तथा सीवेज की गन्दगी जो हमारी नदियों में मिलाई जा रही है, उसका क्या? 

Thursday, February 23, 2012

समस्या पूर्ति


सबसे बड़ा अभिनेता हूँ मैं,
कोई नहीं अब तेरे सिवा
कोई नहीं अब मेरे सिवा
वादे ही वादे देता हूँ मैं
सबसे बड़ा अभिनेता हूँ मैं,
बताओ तुमको क्या चाहिये,
जमीं चाहिये आसमां चाहिये,
अभी के अभी देता हूँ मैं,
सबसे बड़ा अभिनेता हूँ मैं,
तुम दो मेरा साथ यूँ ही सदा,
मैं भी रहूँगा तुम्हारा सदा,
नैया यूँ ही अपनी खेता हूँ मैं
सबसे बड़ा अभिनेता हूँ मैं,
सभी को मिलेगा मौका यहाँ,
नहीं इसमें कोई धोखा यहाँ,
हिस्से को अपने लेता हूँ मैं,
सबसे बड़ा अभिनेता हूँ मैं,
सबके लिये कुछ करूँगा जरूर,
थोड़ा समय दीजिए तो हुजूर,
सपनों का थोक विक्रेता हूँ मैं,
सबसे बड़ा अभिनेता हूँ मैं,
......................................

Tuesday, February 21, 2012

चुनाव (आयोग) सुधार


यहाँ न तो लिंग भेद है और न ही गुलाब






पिछली पोस्ट पर जिसमें मैंने गुलाब की एक कली की तस्वीरें लगाई थीं,आशुतोष जी की ह्रदय को छूने वाली एक  टिप्पणी ने मुझे गेंहूँ और गुलाब की याद दिला दी. यह निबंध शायद हाईस्कूल में पढ़ा था और उस समय इसकी महत्ता का भान नहीं था. बहरहाल,गेहूँ की तस्वीरें तो नहीं लगा सका,लेकिन राह चलते एक जगह यह दृश्य दिखाई दिया. कई पूरे के पूरे परिवार जिनमें ऐसे बच्चे भी शामिल हैं,जिनकी उम्र स्कूल जाने की है,पढ़ने-लिखने की है,खेलने-कूदने की है,हमारे  लिए खाद्यान्न उपलब्ध कराने में लगे हुए हैं. कारण चाहे कुछ भी हों,स्थितियाँ विकराल हैं. हर वय के  लोग कार्य में लगे हुए हैं,चौदह वर्ष से  कम उम्र के  बच्चे भी,जिनसे काम कराना कानूनी अपराध है. लेकिन फिर एक यक्ष प्रश्न सामने उठता है,यदि काम पर नहीं जायेंगे तो खायेंगे क्या,क्या आप दोगे खाने को? यह सवाल मुझसे एक बच्चे ने ही कर मुझे निरुत्तर कर दिया. प्रशासन के एक मध्यम अनुक्रम  के अधिकारी के  यहाँ ही दस  वर्ष का  बच्चा कार्य कर रहा था. जब शिकायत हुई तो हमेशा की तरह निष्कर्ष कुछ नहीं निकला. नीतियाँ और योजनायें बनाना एक अलग चीज है और उनका क्रियान्वयन बिलकुल अलग. यहाँ किसी प्रकार का  लिंग-भेद भी नहीं और  गुलाब भी नहीं,जिन बच्चों को फूलों से खेलना चाहिये,वे हाथों में हँसिया- खुरपी  लेकर  डटे हुए हैं. छोटी सी सुकोमल बच्चियाँ भी इनमें देखी जा सकती हैं. दोष किसी का भी हो,सजा इन बच्चों को क्यों?

Wednesday, February 15, 2012

सैकड़ों की संख्या में ख़बरें और मंहगाई दर.

हर कोई चैनल सबसे कम समय में सबसे अधिक ख़बरें दिखाने का दावा करता है. कोई मिनट के हिसाब से तो कोई संख्या के हिसाब से. मानो कोई जलजला आ गया हो खबरों का. और एंकर तो बिलकुल किसी युद्ध के मोर्चे पर लाईट मशीनगन लेकर तैनात फौजी की तरह खबरों की गोली दागता रहता है. निरीह दर्शक, जिसके आँखों-कानों में दर्जन और सैकडे के हिसाब से ख़बरें घुसेड़ने का पुरजोर प्रयास किया जाता है, चुपचाप मूकदर्शक बनकर बैठा रहता है. कोई कहता है कि गोली की रफ्तार से ख़बरें देखिये तो कोई एक मिनट में सैकड़ा पूरा करने की बात कहता है. पता नहीं ये खबरें दिखाना चाहते हैं या फिर गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्शकों के दिमाग में ख़बरें घुसेड़ने का रिकार्ड बनाना चाहते हैं.
दूसरा तिलिस्म यह समझ में नहीं आता कि दर कम होती है लेकिन मंहगाई बढती जाती है. ये कौन सा अर्थ या अनर्थ शास्त्र है जिसमें सप्लाई बढ़ने पर भी मंहगाई बढती है और घटने पर भी. ये कौन सा चमत्कार है कि मंहगाई की दर तो दूरदर्शन पर कम होती मालूम चलती है, लेकिन दूध-दही, आटा-दाल, शिक्षक-डाक्टर की फीस वैसी की वैसी ही. घर के बजट में बचत का अंश आंशिक मात्रा की तरफ चला जा रहा है. अभी नेताओं की संपत्ति पढ़ रहा था. कुछ के विषय में पढ़कर आंसू आ गए. बेचारे, एक भी कार नहीं, एक भी गाड़ी उनके अपने नाम नहीं. अब पत्नी-बच्चों की बात मत करें. सिद्धांत की बात है, पत्नी भले मर्सिडीज पर चले लेकिन नेताजी तो पैदल ही चलेंगे.
एक फार्मूला था जो बड़ा गोपनीय था, जिसे सिद्ध करने के लिए कई वर्ष घोर तपस्या करनी पड़ती थी, तब जाकर कहीं कोई देवी-देवता प्रसन्न होते थे और सिद्धि प्रदान करते थे. हमारे पाँच पीढियों पूर्व के पुरखे ने एक बार एक को सिद्ध कर लिया और उसके बाद उनका एक रूपया हर वर्ष दस रुपये में बदलता रहा. लेकिन इस सिद्धि की एक लिमिट भी थी. ये आशीर्वाद केवल पाँच साल तक चलता था. 

सैकड़ों की संख्या में ख़बरें और मंहगाई दर.

हर कोई चैनल सबसे कम समय में सबसे अधिक ख़बरें दिखाने का दावा करता है. कोई मिनट के हिसाब से तो कोई संख्या के हिसाब से. मानो कोई जलजला आ गया हो खबरों का. और एंकर तो बिलकुल किसी युद्ध के मोर्चे पर लाईट मशीनगन लेकर तैनात फौजी की तरह खबरों की गोली दागता रहता है. निरीह दर्शक, जिसके आँखों-कानों में दर्जन और सैकडे के हिसाब से ख़बरें घुसेड़ने का पुरजोर प्रयास किया जाता है, चुपचाप मूकदर्शक बनकर बैठा रहता है. कोई कहता है कि गोली की रफ्तार से ख़बरें देखिये तो कोई एक मिनट में सैकड़ा पूरा करने की बात कहता है. पता नहीं ये खबरें दिखाना चाहते हैं या फिर गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्शकों के दिमाग में ख़बरें घुसेड़ने का रिकार्ड बनाना चाहते हैं.
दूसरा तिलिस्म यह समझ में नहीं आता कि दर कम होती है लेकिन मंहगाई बढती जाती है. ये कौन सा अर्थ या अनर्थ शास्त्र है जिसमें सप्लाई बढ़ने पर भी मंहगाई बढती है और घटने पर भी. ये कौन सा चमत्कार है कि मंहगाई की दर तो दूरदर्शन पर कम होती मालूम चलती है, लेकिन दूध-दही, आटा-दाल, शिक्षक-डाक्टर की फीस वैसी की वैसी ही. घर के बजट में बचत का अंश आंशिक मात्रा की तरफ चला जा रहा है. अभी नेताओं की संपत्ति पढ़ रहा था. कुछ के विषय में पढ़कर आंसू आ गए. बेचारे, एक भी कार नहीं, एक भी गाड़ी उनके अपने नाम नहीं. अब पत्नी-बच्चों की बात मत करें. सिद्धांत की बात है, पत्नी भले मर्सिडीज पर चले लेकिन नेताजी तो पैदल ही चलेंगे.
एक फार्मूला था जो बड़ा गोपनीय था, जिसे सिद्ध करने के लिए कई वर्ष घोर तपस्या करनी पड़ती थी, तब जाकर कहीं कोई देवी-देवता प्रसन्न होते थे और सिद्धि प्रदान करते थे. हमारे पाँच पीढियों पूर्व के पुरखे ने एक बार एक को सिद्ध कर लिया और उसके बाद उनका एक रूपया हर वर्ष दस रुपये में बदलता रहा. लेकिन इस सिद्धि की एक लिमिट भी थी. ये आशीर्वाद केवल पाँच साल तक चलता था. 

Monday, January 30, 2012

१-घण्टे बजाने पर रोक नहीं , २ - कश्मीर से मिशनरी को बाहर जाने के आदेश दिए गये !

पिछली पोस्ट में एक लिंक दिया हुआ था जिसमें वर्णित था कि हैदराबाद के एक मंदिर में घंटी-घण्टे बजाने पर रोक लगा दी गयी है. आज उसी वेब-एड्रेस पर अंकित है कि एक स्थानीय अखबार ने बताया कि वहाँ के डीसीपी ने यह कहा है कि वह फोटो पहले की है और वहाँ कोई रोक नहीं है. बहरहाल, हमारे यहाँ पुलिस की छवि ऐसी बन चुकी है कि उसकी कही हुई बातों पर विश्वास मुश्किल से ही होता है. पुलिस को ऐसे प्रयास करने चाहिये कि किसी भी दशा में ऐसे कार्य न हों जिससे किसी प्रकार का तनाव उत्पन्न हो.
आज सुबह एक खबर पर नजर पड़ी जिसमें लिखा था कि सैयद अली शाह गिलानी कश्मीरी मिशनरियों के समर्थन में आगे आये. अंदर पढ़कर और आश्चर्य हुआ जहाँ यह ज्ञात हुआ  कि कश्मीर की शरिया अदालत ने चार ईसाइयों को जम्मू-कश्मीर से हमेशा के लिए बाहर जाने का आदेश सुना दिया है. इन का गुनाह यह था कि इन्होंने कुछ मुस्लिमों को धर्म परिवर्तन कर ईसाई बना दिया था. कमाल है एक धर्म-निरपेक्ष देश में शरई अदालतें. इस पर सब चुप हैं.
कहीं डेरा से समर्थन माँगा जाता है तो कहीं बुखारी किसी दल को समर्थन देने का फतवा सा देते हुए नजर आते हैं. हर दल धर्मनिरपेक्ष है लेकिन नीतियाँ आदमी के लिए नहीं, उसकी जाति, उसके धर्म के हिसाब से बनने के वायदे किये जा रहें हैं. धन्य हैं देश के ये कर्णधार.

Saturday, January 28, 2012

भक्तों को घंटे-घन्टी बजाने से रोक...इसे पढ़कर तो बहुत आश्चर्य हुआ और क्षोभ भी...

क्या ऐसा भी हो सकता है? आँध्रप्रदेश सरकार की साम्प्रदायिकता का एक अजीब और दुखद उदाहरण सामने आया है | हैदराबाद में चार मीनार के पास स्थित भाग्यलक्ष्मी जी के मंदिर पर ‘आरती के समय घंटे’ बजाने पर रोक है; जिसके लिए प्रशासन ने दो महिला कांस्टेबल भी भक्तों को घंटे-घन्टी बजाने से रोकने के लिए लगाये है| नीचे  का फोटो देखकर आपको हकीकत का अंदाजा लग जायेगा | लिंक यह है.|

Thursday, January 26, 2012

मल्लिका जी, क्यों उदास हैं!


मल्लिका जी, क्यों उदास हैं,
पुरुस्कार न मिलने का गम या अन्य कारण खास हैं,
आपने अपनी प्रोफाइल क्यों छुपाई है,
पहले की ही है या अभी अभी बनाई है,
यूं तो आपका नाम ही पारदर्शिता का सिनोनिमस है,
लेकिन यूं छुपकर आप खुद क्यों अनोनिमस हैं
जरा सामने तो आईये
रुख से पर्दा तो हटाईये
यह माना कि पुरुस्कार न मिल पाने से आपको कष्ट हुआ होगा
कोई बन्दा खुश तो कोई रुष्ट हुआ होगा
अरे यह तो दुनिया का दस्तूर है
हमारे हक में होने वाला फैसला ही हमें मंजूर है
यदि आपको खराब लगा हो तो हमारी सलाह अपनाइये
एक सम्मेलन अपने यहां करवाईये
सभी ब्लागर्स को ससम्मान बुलाइये
और उसमें हमें मुख्य अतिथि बनवाईये
अगर सभी बिलागरान को प्रेम से बुलायेंगी
उनके आतिथ्य का जिम्मा उठायेंगी
तो सच मानिये आपको भी आनन्द आयेगा
और पुरुस्कृत न होने का मलाल भी मिट जायेगा..

भूमिका - पुरूस्कारों को लेकर एक ब्लॉग पर जोरदार बहस छिड़ी थी, जिसमें एक बड़ी अच्छी टिप्पणी मल्लिका नामी प्रोफाइल से की गयी थी, बस फिर ऐसे ही चार-पाँच लाइनें लिख दीं, बतौर हास्य.

Saturday, January 21, 2012

मतदान अनिवार्य होना चाहिये

चुनाव आयोग ने मतदाताओं को अधिक मतदान हेतु प्रेरित करने के लिए अपने एम्बेसडर नियुक्त किये हैं जो विभिन्न नगरों का दौरा कर मतदाताओं को प्रोत्साहित करने का कार्य कर रहे हैं.  एक दो नेताओं के भी बयान समाचारपत्रों में पढ़ने को मिले हैं जिसमें उन्होंने अधिकाधिक मतदान करने की अपील की है.
१. क्या जनप्रतिनिधि चुनना विवाह करने से कम महत्वपूर्ण कार्य है, क्योंकि एक व्यस्क पुरुष को विवाह करने के लिए कम से कम २१ वर्ष का होना आवश्यक है जबकि सरकार बनाने के लिए जनप्रतिनिधि को चुनने के लिए विवाह की उम्र से ३ वर्ष कम होना पर्याप्त है. 
२. मतदान का प्रतिशत न्यूनतम ३५ से अधिकतम ६० रहता है. अब इसे और सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर पता चलता है कि डाले गए मतों में से अधिकांश मत ३-४ प्रत्याशियों के मध्य बंट जाते हैं. जिसमें से पुनः देखने पर ज्ञात होता है कि जो प्रत्याशी १५-२५ प्रतिशत मत पा जाता है वह विजयी बन जाता है. 
३. अब यदि बहुमत की प्रक्रिया को माना जाए तो ५१ = १०० होना चाहिये, लेकिन यहाँ स्थिति यह है कि १५ से २५ = १००. आगे फिर देखें तो पता चलता है कि सदन में जिस या जिन दलों के पास निर्वाचित प्रतिनिधियों का  ५० प्रतिशत +१ होता है वह या वे दल सरकार का गठन करते हैं. तात्पर्य यह कि कुल मतों में से ७-१४ प्रतिशत  मत ही सरकार बनाने के लिए उत्तरदायी होते हैं.
४. दलों, नेताओं पर अविश्वसनीयता, जातीयता- क्षेत्रीयता और धार्मिक मुद्दों का उदय तथा इसके अलावा भी कई विभिन्न कारण हैं जिनके चलते मतदाता वोट डालने के प्रति उदासीन हो चुका है. मध्य वर्ग इसे छुट्टी के तौर पर मनाता है और उच्च वर्ग भी मतदान को किसी अन्य दृष्टिकोण से देखता है.
५. मतदान करने के लिए लोगों के अलग पैमाने हैं. कई बार यह भी देखा गया है कि जातीय या धार्मिक समीकरणों के चलते अच्छी छवि के प्रत्याशी हार गए. जातीय और धार्मिक पैमाने न केवल मतदान में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, बल्कि टिकट ही इन्हीं समीकरणों को देखकर दिए जाते हैं. शायद जनगणना रिपोर्ट का सबसे अधिक प्रयोग चुनाव में समीकरण बनाने के लिए ही किया जाता होगा.
६. अब प्रश्न यह उठता है कि जो लोग अगले पाँच सालों तक देश या प्रदेश के सिरमौर बनकर बैठेंगे, जो करोड़ों लोगों के भाग्यविधाता बनकर बैठेंगे, उनके चुनने में इतनी उदासीनता! और जब लोग स्वेच्छा से घर से बाहर निकलकर मतदान करने में दिलचस्पी न लें तो क्या करना चाहिये?
७. अनिवार्य मतदान - ही एक मात्र और अच्छा विकल्प है. जब हम स्वेच्छा से अपने भाग्य-विधाताओं को चुनने में लापरवाही बरत सकते हैं तो क्या विधायिका की यह जिम्मेदारी नहीं बनती कि वह एक ऐसा कानून बनाये जिसके द्वारा कम से कम हर मतदाता (विशेष परिस्थितियों को छोड़कर) बूथ तक आये.
८- और यह निश्चित मानिये कि यदि हर मतदाता बूथ तक आएगा तो उनमें से ३-४ प्रतिशत मतदाता ही ऐसे होंगे जो मत नहीं डालेंगे. और जब वोटिंग प्रतिशत बढ़ेगा तो स्थिर सरकार बनने की सम्भावना बढ़ेगी और साथ ही छोटे दलों की राजनैतिक जोड़-तोड़ भी बंद हो सकेगी.
९- जो व्यक्ति अनिवार्य मतदान को असंवैधानिक बताते हैं, वही व्यक्ति अलग - अलग मंचों पर जन सामान्य को यह पाठ पढाते नहीं चूकते कि अधिकारों से पहले कर्तव्य निभाना चाहिये तभी अधिकारों की बात करनी चाहिये.  यहाँ यह बताने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती कि हमारे देश में निरक्षरता का प्रतिशत कितना अधिक है और जो पढ़े लिखे भी हैं वे भी अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु भोले भाले लोगों को बरगलाने में नहीं चूकते.
१०. समय के अनुसार कानून में बदलाव अपरिहार्य हो जाते हैं. जो चीजें कल तक अग्राह्य थीं, आज उन्हें स्वीकार कर लिया गया है. जिन दुष्कर्मों के लिए कल तक कोई कानून नहीं था, आज उनके लिए क़ानून बनाये गए हैं और उनमें दाण्डिक प्रावधान किये गए हैं.
११. स्वेच्छा से तो हमारे देश में अधिकतर चीजें होती ही नहीं. भीड़ भरे स्थानों में लोगों को स्वेच्छा से कतार में रहना चाहिये, नहीं रहते. सडकों को गन्दा नहीं करना चाहिये, करते हैं. धूम्रपान नहीं करना चाहिये, करते हैं. स्वेच्छा से हम लोग वही काम करते हैं जिससे दो पैसे का फायदा हो, बिना फायदे के हम कुछ भी स्वैच्छिक नहीं करते. और स्वेच्छा तो छोडिये, यदि क़ानून की नजर से बचने का जुगाड़ हो तो कानून भी बेझिझक तोड़ते हैं. ऐसे में स्वैच्छिक मतदान से तो मतदान का प्रतिशत नहीं बढ़ने वाला.
१२. अनिवार्य मतदान में कुछ जमीनी कठिनाइयाँ हो सकती हैं, लेकिन उनका हल खोजा जा सकता है. उसके लिए कुछ उचित प्रावधान किये जा सकते हैं. आखिर जो लोग पाँच साल तक हम सब लोगों की तक़दीर के मालिक बनकर बैठेंगे, उनके लिए एक दिन अनिवार्य रूप से क्यों नहीं दिया जा सकता.

Wednesday, January 18, 2012

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अपनी अपनी परिभाषाएँ .

जब बात होती थी मकबूल फिदा हुसैन की, तो हमारे यहाँ बड़े बड़े नेता, समाजसेवी, पत्रकार  धर्मनिरपेक्षता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देते हुए रुदन करने लगते थे कि हुसैन का विरोध करने वाले फासिस्ट हैं, नाजी हैं. ऐसे ही कई स्वनामधन्य पत्रकार, नेता, समाजसेवी और कई बहुत पढ़े लिखे लोग तथा  एकाधिक  विशेष ग्रुप  से सम्बन्धित व्यक्ति, हुसैन द्वारा बनाई गई देवी-देवताओं की नग्न तस्वीरों का खुला समर्थन करते थे और अभी भी करते हैं तथा हुसैन द्वारा बनाई गई ऐसी पेंटिंगों का विरोध करने वाले लोगों पर हर प्रकार से वार करने पर उतारू रहते थे. उनका कहना होता था कि ये तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन है, संविधान में दी गई स्वतंत्रता का हनन है. लोगों को कला की समझ नहीं है, वगैरा. 
किन्तु बात जब सलमान रुश्दी या तस्लीमा नसरीन की आती है तब यह लोग सामने नहीं आते. पता नहीं उस समय ये लोग वैसे ही अभिव्यक्त करने में क्यों परहेज करने लगते हैं? क्या सलमान रुश्दी के भारत आने का विरोध और भारत आने से रोकना संविधान में दी गई स्वतंत्रता पर हमला नहीं है. क्या तस्लीमा नसरीन की भारत यात्रा का विरोध और उन पर सैकड़ों लोगों के सामने किया गया हमला, भारतीय संविधान पर सीधा हमला नहीं है? क्या सलमान रुश्दी को अपनी बात कहने से बलात् रोकना अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का सीधा सीधा हनन नहीं है? क्या तस्लीमा नसरीन को अपने विचार व्यक्त करने से जबरन रोकने वाले फासिस्ट नहीं हैं?  हर चीज के लिए यहाँ अलग पैमाने गढ़ लिए गए हैं, अपनी सुविधानुसार. और यही पैमाने एक दिन सम्पूर्ण विनाश का कारण बनते हैं, देखते है कि कितने दिनों हम इन अलग अलग पैमानों पर चलकर अपने लिए विनाश से बचा सकते हैं. 
    

Tuesday, January 17, 2012

बस यूं ही.


उसकी आंखों में समंदर सा उतर आया था,
डूब जाता न भला और तो क्या करता मैं .

कोशिशें कर न सका उसको भूल पाने की
जिस्म से रूह कहीं यूं भी जुदा होती है.

याद आता रहा वो महफिल-ओ-तन्हाई मे
इश्क क्या चीज है जो दिल में उतर जाती है.

खाने को मयस्सर हुए न निवाले दो उसको
तेरी दुनिया में बसर यूँ भी खुदा होती है.

Sunday, January 15, 2012

गृह सचिव के पास डाक


सूबे में कौन है असली प्रमुख सचिव गृह?दैनिक जागरण १४/०१/२०१२