Saturday, March 30, 2013

दोष किसका.


आठ पुलिस वालों को बारह निर्दोष लोगों की हत्या का दोषी करार दिया गया. निश्चित रूप से यह खबर उन लोगों के घरवालों के लिये अच्छी है जो लोग इस झूठी मुठभेड़ में मारे गये और दूसरे उन पुलिस वालों के लिये सबक मिलेगा जो इस तरह के कारोबार में संलिप्त हैं.

लेकिन इसका दूसरा पहलू देखिये - हत्याकाण्ड हुआ 12 मार्च 1982 को, 24 फरवरी 1984 को सुप्रीम कोर्ट ने सी बी आई जांच के आदेश दिये. 28 दिसंबर 1989 को चार्जशीट दाखिल की गई और 28 मार्च 2013 को फैसला हुआ. 

यदि डी एस पी के पी सिंह की पत्नी विभा सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका न दायर की होती तो शायद इस मामले की जांच भी न हो पाती क्योंकि मारे गये ग्रामीणों के परिजन इतने सक्षम नहीं कि मामले को आगे बढ़ा पाते.

साढ़े पाँच साल से भी अधिक समय लगा सीबीआई को मामले की जांच कर चार्जशीट दाखिल करने में और चौबीस साल लगे मामले के निर्णय तक पहुंचने में. कोर्ट ने आठ पुलिस वालों को दोषी पाया है, और मुझे नहीं लगता कि इनमें से एक पुलिसकर्मी को भी नौकरी से निकाला गया होगा.

अर्थात यह सम्भावना है कि इस फर्जी मुठभेड़ के साजिशकर्ता इकतीस साल तक नौकरी करते रहे होंगे. हमने पूरा का पूरा ढाँचा अंग्रेजी सिस्टम का ही अपनाया है, मुझे नहीं लगता कि ब्रिटिश राज्य में किसी जाँच और मुकदमे के समापन में इकतीस साल लगते होंगे. चूंकि  दोषियों के पास अभी उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में अपील के विकल्प मौजूद हैं ऐसे में कितना समय अभी और लगता है कहना मुहाल है.

लेकिन इन पूरे इकतीस वर्षों में अपराधी नौकरी करते रहे होंगे, जनता के सेवक बने रहे होंगे, तनख्वाह लेते रहे होंगे. इन इकतीस वर्षों का हिसाब कौन देगा और कौन लेगा. क्या सम्पूर्ण ढांचे में बदलाव अभी भी आवश्यक प्रतीत नहीं होता. आखिर इस सब में दोषी कौन है, वह जनता जो अपने प्रतिनिधियों को चुनती है या फिर वे प्रतिनिधि जो जनता के हितों की तरफ से उदासीन होकर बैठ जाते हैं.

Sunday, March 3, 2013

पड़ोसी के यहाँ आग लगे, हमें क्या!


हम भारतीय बहुल एक विशेष मानसिकता या कहिये कि भ्रम में जीने के आदी हो गये हैं. वह भ्रम है कि हम लोग जिस मकान में रहते हैं वह बिल्कुल बम-गोला-दुर्घटना प्रूफ है. हमारे पड़ोसी के साथ भयंकरतम हादसा हो सकता है लेकिन हमारे साथ नहीं. इसलिये बिल्कुल निश्चिन्तता का जीवन इस तरफ से व्यतीत करते हैं, लेकिन जब वही सबकुछ हमारे ऊपर बीतता है तो हर एक को कोसते नजर आते हैं. समाज को, अन्य व्यक्तियों को, सरकार को, शासन-प्रशासन को.
और यह मानसिकता अभी की नहीं, सदियों पुरानी है. सोमनाथ पर आक्रमण को लेकर लिखी गयी एक पुस्तक को पढ़ते समय ऐसा लग ही नहीं रहा था कि आज से सैकड़ों वर्ष पहले की घटनाओं और परिस्थितियों में किंचित अन्तर है. वही निश्चिन्त लोग, वही सोच कि सोमनाथ में आतताई आ ही नहीं सकते. कितने दर्रे, कितने पहाड़, भीषण रेगिस्तान पार कर के आखिर कौन आयेगा सोमनाथ तक. बीच में कितने ही राज्य पड़ेंगे, कितने ही राजे-महाराजे तैयार होंगे उनसे निपटने के लिये. लेकिन सोमनाथ पर हमला हुआ, कितनी बार हुआ, उन हमलों में आतताइयों ने क्या किया, सब कुछ इतिहास में दर्ज है.
और बिल्कुल वैसा ही अब हो रहा है. बम-विस्फोट होते हैं, एक दिन की सुगबुगाहट के बाद फिर वही चुप्पी. बांग्लादेश में एक आतताई को फांसी के विरोध में निर्दोषों की बलि, लेकिन फिर वही चुप्पी. एक आदमी भला दूसरे के ऊपर क्रूरता कैसे कर सकता है? क्या अधिकार है उसे? लेकिन हम लोग बोलना तो दूर सोचना तक नहीं चाहते. क्यों? इसलिये क्योंकि हमें लगता है कि जो आग पड़ोसी के घर में लगी है वह हमारे घर तक नहीं पहुँचेगी. और अगर उस आग के बारे में सोचेंगे तो कुछ करना पड़ेगा और हम करें क्यों, क्योंकि आग तो पड़ोसी के घर में है. लेकिन जब आग हमारे घर में लग जाती है तो हम सबकी ओर नजर उठाकर अपेक्षा करते हैं कि वे हमारा साथ दें.
इतिहास साक्षी है कि वह अपने लिये दुहराता भी है, फर्क समय, स्थान और व्यक्तियों का हो सकता है. यह बात भी पूरी तौर पर सही है कि जो लोग इतिहास को याद नहीं रखते, इतिहास उन्हें याद रखने लायक नहीं छोड़ता. आज हम भले यह मानकर चुप्पी साध लें कि जो बम हैदराबाद में फटे हैं वे हमारे यहां नहीं फट सकते, जो आग बांग्लादेश में लगी है वह हमारे यहां नहीं आ सकती, लेकिन सही बात यह है कि यदि हम भ्रष्टाचार को सामाजिक स्वीकृति देते रहे तो एक न एक दिन यह परिस्थितियां हम सभी के सामने होंगी और उस समय हमारे पास पछतावे के सिवा कुछ न होगा.