Sunday, August 25, 2013

क्या हमारे यहाँ सही अर्थों में लोकतन्त्रिक व्यवस्था लागू है?

हम लोग अपने सांसद-विधायकों को चुनते हैं. पहली बात तो यह कि मतदान का प्रतिशत औसत ४०-४५% रहता है. उसके बाद इसमें आधे से अधिक मत जीतने वाले के अलावा अन्य प्रत्याशियों में बंट जाते हैं, मतलब यह कि कुल मतों का १५-२०% पाने वाले प्रत्याशी को जीत हासिल हो जाती है, फिर इसका ५१% वाले सत्ता पा जाते हैं. सार यह कि सत्ता किसे देनी है यह कुल मतों के दसवें हिस्से से निर्धारित होता है. 

अब आते हैं दूसरी बात पर.  लोकतन्त्र की दुहाई देने वाले राजनीतिक दल मतदाताओं के लिये तो लोकतान्त्रिक व्यवस्था की बात करते हैं लेकिन उनके स्वयं के अन्दर न तो पारदर्शिता है और न ही कोई लोकतान्त्रिक व्यवस्था. पारदर्शिता के नाम पर एक मात्र अधिनियम सूचना का अधिकार अधिनियम, २००५ है जिसके दायरे में कोई राजनीतिक दल नहीं रहना चाहता. क्यों? क्या राजनीतिक दलों के पदाधिकारी/ कार्यकर्ता भारत के नागरिक नहीं हैं. वे स्वयं सूचना माँग सकते हैं लेकिन सूचना देने में इतना कष्ट!

मूल मुद्दा था लोकतान्त्रिक व्यवस्था का. आमतौर पर सबसे बड़े दल के सांसद/विधायक दल का नेता सरकार बनाने का दावा करता है. लेकिन इन दलों में नेता कैसे चुना जाता है? बड़ी बात यह है कि लोकतन्त्र की दुहाई देने वाले अधिकतर दलों के पदाधिकारियों में चुनाव न कर मनोनयन किया जाता है. और इन दलों के अन्दर कोई ऐसी व्यवस्था नहीं कि चुनाव होने के बाद लोकतान्त्रिक तरीके से अपने दल के नेता का चुनाव किया जाये. कहीं सांसद/विधायक यह कह देते हैं कि हमारे दल के मुखिया जिसे चुनेंगे वह स्वीकार्य होगा. कहीं पहले से ही किसी व्यक्ति को बतौर मुखिया प्रोजेक्ट कर दिया जाता है. क्या लोकतन्त्र केवल आम मतदाता के लिये है, दलों में लोकतन्त्र नहीं होना चाहिये.

ऐसे में जो मुखिया बनता है वह चुना हुआ कहाँ से हुआ, और जब उसका चुनाव सीधे नहीं हुआ तो फिर किसके प्रति उत्तरदायी हुआ. इससे तो बेहतर है कि राज्य और देश के प्रमुख का चुनाव भी सीधे ही जनता के द्वारा कराया जाये जिससे कम से कम जनता और मुखिया दोनों ही एक दूसरे के प्रति सीधे ही उत्तरदायी हो सकें.

Saturday, April 20, 2013

पुलिस का रवैया


दिल्ली में पाँच वर्षीया बच्ची के साथ हुये अमानुषिक कृत्य के बाद प्रदर्शन कर रही एक युवती के ऊपर थप्पड़ मारकर पौरुष दिखाने का कृत्य पुलिस के एक अधिकारी ने किया. यद्यपि उस अधिकारी को सस्पैंड कर दिया गया है, लेकिन पुलिस में लाइन-हाजिर होना, सस्पैंड होना आम बात है. अधिकारियों को थाने से हटा दिया जाता है बाद में दूसरी जगह तैनाती दे दी जाती है. लखनऊ में एक युवक की मौत थाने में हो गयी. कुछ अधिकारियों को सस्पैंड कर मामले की इतिश्री कर दी गयी. अलीगढ़ में एक बलात्कार की घटना के बाद वहाँ भी पुलिस अधिकारी प्रदर्शन कर रहे लोगों को लात-जूतों से निपटाते नजर आये. जाहिर है कि पुलिस वाले अपने लिये इस कारण कानून से ऊपर समझते हैं कि किसी भी प्रकार की त्वरित और कठोर कार्रवाई उन पर नहीं की जाती. उत्तर प्रदेश के ही एक अधिकारी को सीबीआई ने फर्जी मुठभेड़ का आरोपी बनाया है, लेकिन कोई प्रशासनिक कार्रवाई नहीं की गयी. पिछले दिनों ही एक डीएसपी और बारह ग्रामीणों की हत्या में पुलिस वालों को सजा सुनाई गयी, लेकिन उसमें भी ढ़ाई दशक लग गया.

मौजूदा ढ़ाँचा राजनीतिज्ञों ने अपने लाभ हेतु बना रखा है. इसीलिये वे किसी भी तरह का सुधार नहीं चाहते. वही हाल इन अधिकारियों का है, इन्हें यह लगता है कि वे खास हैं और उनके यहाँ आम हो ही नहीं सकता. उनके दिमाग में यह बैठ गया है कि वह सबको लठिया सकते हैं और उनके साथ यह नौबत कभी नहीं आ सकती. मुझे इन लोगों के मानसिक स्तर पर कभी संदेह नहीं हुआ, आखिर मानसिक रूप से विचलित कोई व्यक्ति शांति से प्रदर्शन कर रहे लोगों के ऊपर कैसे लाठी चला सकता है, और दूसरी तरफ मुंबई में उपद्रवियों के सामने कोई कैसे निरीह प्राणी बनकर खड़ा रह सकता है. दर-असल ये लोग भी समाज के ही एक अंग हैं और यह समाज की सही स्थिति दर्शाते हैं. सही स्थिति यह है कि आज अपने स्वार्थ पूर्ति हेतु हर व्यक्ति (अपवादों को छोड़कर) किसी भी हद तक जा सकता है और वही परिस्थिति अपने सामने होने पर चिल्लाता है. 

इस पीड़िता के मामले में जो लोग सौदा करवाने पर उतारू थे, जो अधिकारी कार्रवाई करने में हीला-हवाली कर रहे थे, जो प्रदर्शन करने वालों के दमन पर अड़े हुये थे, अगर उनके विरुद्ध तुरन्त कठोर कार्रवाई की जाती तो कुछ अच्छा संदेश जाता. लेकिन जब नीचे कार्रवाई होने लगेगी तो फिर नीचे वाले ऊपर वालों को भी जद में लेने लगेंगे, और जब ऊपर वालों पर कार्रवाई होगी तो फिर कानून का राज चलने लगेगा, लेकिन कानून का राज इस देश में कौन चाहता है, उसके अलावा जो कानून की व्याख्या अपने हिसाब से नहीं करवा पाता.

Thursday, April 18, 2013

विस्फोटों से फायदा..

एक नेता जी का ट्वीट है कि बम विस्फोट भाजपा के कार्यालय के बाहर होने से भाजपा को राजनीतिक फायदा होगा. फिर वे यह भी बतायें कि अभी तक हुई आतंकवादी वारदातों से किस किस दल को कितना फायदा हुआ है. उनके दल के लोग भी इस प्रकार की आतंकवादी वारदातों में मारे गये हैं. मुझे तो यही लगता था कि विस्फोटों से नुकसान ही होता है, लेकिन फायदे का पहलू पहली बार पता चला. ऐसे लोग जनता के घावों पर कैसा सुन्दर मरहम लगा रहे हैं!
विडम्बना यह है कि हमारे यहां ९० प्रतिशत जनता इस सब से या तो अंजान है, या अंजान बना रहना चाहती है, या फिर उसे अंजान बनाया गया है. अभी भी बहुत समय है, भारतीय यदि अभी भी न चेते तो आने वाले दिनों में भारतीयता बची रहेगी, इसकी संभावना बहुत ही कम है. और लोगों के अन्दर यदि ऐसी प्रवृति आने लगे तो आसार अच्छे नहीं हैं. जागो.

Monday, April 15, 2013

झूठी एफ आई आर दर्ज कराने वालों पर कार्रवाई क्यों नहीं..


एक अधिकारी के ऊपर FIR दर्ज होती है  छेड़छाड़ के जुर्म में. थाने में पैरवी करने वाले आ जाते हैं. मुख्यमन्त्री जी का आदेश होता है कि पैरवी करने वालों के विरुद्ध कार्रवाई होगी. लेकिन थाने के कैमरों से कुछ नहीं निकलता. अब रिपोर्ट कराने वाली महिला कोर्ट में अपने बयान से मुकर गयी. नतीजा मामला खत्म.एक पूर्व सांसद के विरुद्ध तहरीर दी जाती है. छेड़छाड़ की. वे सज्जन अस्पताल में भर्ती हो जाते हैं. चौबीस घण्टे के अन्दर उनके खिलाफ दी गयी तहरीर वापस ले ली जाती है. नतीजा मामला खत्म.

ऊपर वाले मामले में एक आर्टिकल पढ़ा था जिसमें लिखा था कि एफ०आई०आर० कराने वाली महिला के विरुद्ध झूठी रिपोर्ट दर्ज कराने के लिये कार्रवाई होना चाहिये. बात बिल्कुल न्यायसंगत है कि यदि कोई व्यक्ति जान-बूझ कर झूठी रिपोर्ट दर्ज करा रहा है तो उसके विरुद्ध कार्रवाई होना चाहिये.किन्तु रसूखदार व्यक्तियों के विरुद्ध मामले को चलाते रहना क्या इतना ही आसान है. जो व्यक्ति रसूख वाले हैं, उनके साथ समाज के न जाने कितने ही लोग प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उनकी मदद करते हैं और करने को तैयार रहते हैं. जिनके पास इतने साधन मौजूद होते हैं कि वे सामने वाले व्यक्ति को ये केन प्रकरेण अपनी खिलाफत से हटा ही देते हैं. ऐसे भी मामले हैं जहाँ रसूखदार लोग सार्वजनिक रूप से गैरकानूनी गतिविधियों में संलिप्त पाये गये किन्तु पुलिस की जाँच में बरी हो गये या फिर उनके विरुद्ध मामला ठहरा ही नहीं.

इन दोनों मामलों में अब जबकि कानूनी तौर पर दोनों वादियों ने मामला वापस ले लिया तो निश्चित रूप से झूठी रिपोर्ट लिखाने पर कार्रवाई होना ही चाहिये, क्योंकि यह बहुत गंभीर मामला है, लोगों के विश्वास को तोड़ने का. सामाजिक विश्वास को तोड़ने का. कानून के राज के विश्वास को तोड़ने का.यदि रसूख से डर कर मामला वापस लिया तो जरूरत क्या थी रिपोर्ट दर्ज कराने की और यदि बाद में रसूख का पता चला तो फिर कानून में बदलाव की हिमायत हो कि रसूख वालों पर यह कानून लागू नहीं होता. अगर किसी प्रकार की  पेशबन्दी में या फिर इन व्यक्तियों को परेशान करने के लिये तहरीर दी गयी तो न केवल तहरीर देने वाले लोगों के विरुद्ध, बल्कि चार्जशीट तैयार करने वाले के विरुद्ध भी कार्रवाई होना चाहिये.

Saturday, March 30, 2013

दोष किसका.


आठ पुलिस वालों को बारह निर्दोष लोगों की हत्या का दोषी करार दिया गया. निश्चित रूप से यह खबर उन लोगों के घरवालों के लिये अच्छी है जो लोग इस झूठी मुठभेड़ में मारे गये और दूसरे उन पुलिस वालों के लिये सबक मिलेगा जो इस तरह के कारोबार में संलिप्त हैं.

लेकिन इसका दूसरा पहलू देखिये - हत्याकाण्ड हुआ 12 मार्च 1982 को, 24 फरवरी 1984 को सुप्रीम कोर्ट ने सी बी आई जांच के आदेश दिये. 28 दिसंबर 1989 को चार्जशीट दाखिल की गई और 28 मार्च 2013 को फैसला हुआ. 

यदि डी एस पी के पी सिंह की पत्नी विभा सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका न दायर की होती तो शायद इस मामले की जांच भी न हो पाती क्योंकि मारे गये ग्रामीणों के परिजन इतने सक्षम नहीं कि मामले को आगे बढ़ा पाते.

साढ़े पाँच साल से भी अधिक समय लगा सीबीआई को मामले की जांच कर चार्जशीट दाखिल करने में और चौबीस साल लगे मामले के निर्णय तक पहुंचने में. कोर्ट ने आठ पुलिस वालों को दोषी पाया है, और मुझे नहीं लगता कि इनमें से एक पुलिसकर्मी को भी नौकरी से निकाला गया होगा.

अर्थात यह सम्भावना है कि इस फर्जी मुठभेड़ के साजिशकर्ता इकतीस साल तक नौकरी करते रहे होंगे. हमने पूरा का पूरा ढाँचा अंग्रेजी सिस्टम का ही अपनाया है, मुझे नहीं लगता कि ब्रिटिश राज्य में किसी जाँच और मुकदमे के समापन में इकतीस साल लगते होंगे. चूंकि  दोषियों के पास अभी उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में अपील के विकल्प मौजूद हैं ऐसे में कितना समय अभी और लगता है कहना मुहाल है.

लेकिन इन पूरे इकतीस वर्षों में अपराधी नौकरी करते रहे होंगे, जनता के सेवक बने रहे होंगे, तनख्वाह लेते रहे होंगे. इन इकतीस वर्षों का हिसाब कौन देगा और कौन लेगा. क्या सम्पूर्ण ढांचे में बदलाव अभी भी आवश्यक प्रतीत नहीं होता. आखिर इस सब में दोषी कौन है, वह जनता जो अपने प्रतिनिधियों को चुनती है या फिर वे प्रतिनिधि जो जनता के हितों की तरफ से उदासीन होकर बैठ जाते हैं.

Sunday, March 3, 2013

पड़ोसी के यहाँ आग लगे, हमें क्या!


हम भारतीय बहुल एक विशेष मानसिकता या कहिये कि भ्रम में जीने के आदी हो गये हैं. वह भ्रम है कि हम लोग जिस मकान में रहते हैं वह बिल्कुल बम-गोला-दुर्घटना प्रूफ है. हमारे पड़ोसी के साथ भयंकरतम हादसा हो सकता है लेकिन हमारे साथ नहीं. इसलिये बिल्कुल निश्चिन्तता का जीवन इस तरफ से व्यतीत करते हैं, लेकिन जब वही सबकुछ हमारे ऊपर बीतता है तो हर एक को कोसते नजर आते हैं. समाज को, अन्य व्यक्तियों को, सरकार को, शासन-प्रशासन को.
और यह मानसिकता अभी की नहीं, सदियों पुरानी है. सोमनाथ पर आक्रमण को लेकर लिखी गयी एक पुस्तक को पढ़ते समय ऐसा लग ही नहीं रहा था कि आज से सैकड़ों वर्ष पहले की घटनाओं और परिस्थितियों में किंचित अन्तर है. वही निश्चिन्त लोग, वही सोच कि सोमनाथ में आतताई आ ही नहीं सकते. कितने दर्रे, कितने पहाड़, भीषण रेगिस्तान पार कर के आखिर कौन आयेगा सोमनाथ तक. बीच में कितने ही राज्य पड़ेंगे, कितने ही राजे-महाराजे तैयार होंगे उनसे निपटने के लिये. लेकिन सोमनाथ पर हमला हुआ, कितनी बार हुआ, उन हमलों में आतताइयों ने क्या किया, सब कुछ इतिहास में दर्ज है.
और बिल्कुल वैसा ही अब हो रहा है. बम-विस्फोट होते हैं, एक दिन की सुगबुगाहट के बाद फिर वही चुप्पी. बांग्लादेश में एक आतताई को फांसी के विरोध में निर्दोषों की बलि, लेकिन फिर वही चुप्पी. एक आदमी भला दूसरे के ऊपर क्रूरता कैसे कर सकता है? क्या अधिकार है उसे? लेकिन हम लोग बोलना तो दूर सोचना तक नहीं चाहते. क्यों? इसलिये क्योंकि हमें लगता है कि जो आग पड़ोसी के घर में लगी है वह हमारे घर तक नहीं पहुँचेगी. और अगर उस आग के बारे में सोचेंगे तो कुछ करना पड़ेगा और हम करें क्यों, क्योंकि आग तो पड़ोसी के घर में है. लेकिन जब आग हमारे घर में लग जाती है तो हम सबकी ओर नजर उठाकर अपेक्षा करते हैं कि वे हमारा साथ दें.
इतिहास साक्षी है कि वह अपने लिये दुहराता भी है, फर्क समय, स्थान और व्यक्तियों का हो सकता है. यह बात भी पूरी तौर पर सही है कि जो लोग इतिहास को याद नहीं रखते, इतिहास उन्हें याद रखने लायक नहीं छोड़ता. आज हम भले यह मानकर चुप्पी साध लें कि जो बम हैदराबाद में फटे हैं वे हमारे यहां नहीं फट सकते, जो आग बांग्लादेश में लगी है वह हमारे यहां नहीं आ सकती, लेकिन सही बात यह है कि यदि हम भ्रष्टाचार को सामाजिक स्वीकृति देते रहे तो एक न एक दिन यह परिस्थितियां हम सभी के सामने होंगी और उस समय हमारे पास पछतावे के सिवा कुछ न होगा.

Thursday, February 28, 2013

दुर्घटना के बाद जिन्दा फूंका जाना रेलवे कर्मचारियों का.


कल  एक खबर छपी थी जिसके अनुसार विदिशा के गुलाबगंज में पटरी पार करते समय दो बच्चे सम्पर्क क्रान्ति एक्सप्रेस की चपेट में आ गये. और इसके बाद "गुस्साये लोगों" ने रेलवे स्टेशन फूँक दिया जिसमें दो कर्मचारी जिन्दा जला दिये गये और एक की हालत गम्भीर बताई जाती है.
१.ये बच्चे अपनी मां के साथ थे और मालगाड़ी के नीचे से निकल कर पटरी पार कर रहे थे.
२.क्या मालगाड़ी के नीचे से निकल कर पटरी पार करना सही है?
३.मुझे नहीं पता लेकिन इस खबर से यह लगता है कि ये लोग स्टेशन पर ही रहे होंगे क्योंकि स्टेशन से दूर मालगाड़ी के नीचे से निकल कर पटरी पार करने का कोई औचित्य नहीं समझ में आता.
४.पहले तो पटरी पार करने के लिये स्टेशन पर बने पुल का प्रयोग करना चाहिये और जहाँ कहीं पुल नहीं होते वहाँ चारों तरफ देखकर निकलना चाहिये.
५.क्या सम्पर्क क्रान्ति एक्सप्रेस का चालक अब पूरे मार्ग भर यह देखता चले कि कहाँ लोग मनमाने ढ़ंग से पटरी पार कर रहे हैं?
६.इसके बाद भीड़ ने स्टेशन पर आग लगा दी जिसमें दो लोगों को जिन्दा फूंक दिया.
७."गुस्साये लोग" या "हिंसक अपराधी"? भीड़ का गुस्सा वहाँ तो एक घड़ी को जायज माना जा सकता है जहाँ व्यक्ति विशेष जान-बूझकर दुर्घटना करे, लेकिन जहाँ पर मालगाड़ी के नीचे से निकलकर पटरी पार की जा रही हो वहाँ!
८.ऊपर से निरपराध कर्मचारियों को जलाकर मारना! क्या कर्मचारियों की यह ड्यूटी है कि वह पटरी पार करते लोगों की निगरानी करे!
९.कई साइटों और अखबारों में गुस्साई भीड़ और गुस्साये लोग जैसे उद्बोधन दिये गये हैं जो मेरी दृष्टि में पूरी अनुचित है.
१०.इसके साथ एक खबर और भी थी जिसमें आरपीएफ के जवानों ने एक महिला को धक्का दे दिया जिससे ट्रेन के नीचे आने से उसकी मौत हो गयी.
११.दोनों ही घटनाओं में पाँच जानें चली गयीं इन पाँच जानों की पूर्ति नहीं हो सकती, उनके परिवारों के लिये यह क्षति कभी नहीं पूरी हो सकती.
१२.यदि गुलाबगंज रेलवे स्टेशन पर ऐसी स्थितियां हैं कि लोगों को इस तरह पटरी पार करना मजबूरी है तो ऐसी परिस्थितियों को अनदेखी करने वाले जिम्मेदार व्यक्तियों के प्रति कड़ी कार्रवाई हो, विभागीय तथा विधिक.
१३.जिन आतताइयों ने आग लगाकर दो कर्मचारियों को जीवित जला दिया उन्हें तत्काल ही पकड़कर साल भर के अन्दर उनके मुकदमे का फैसला होना चाहिये.
१४.आरपीएफ के जिन जवानों ने एक महिला को धक्का दिया उस मामले में जांच किसी बाहरी एजेन्सी से एक सप्ताह के अन्दर कराकर दोषियों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई हो तथा उनके मुकदमे का निपटारा भी साल भर के अन्दर होना चाहिये.
क्योंकि यदि इस तरह की घटनाओं पर कड़ी विधि-सम्मत कार्रवाई होकर न्याय नहीं होता तो धीरे-धीरे अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी और बाद में कार्यपालिका और विधायिका को भी इस स्थिति से पार पाना मुमकिन नहीं हो सकेगा.  

Thursday, February 21, 2013

ब्लैंक चेक, शोक संदेश वाले ड्राफ्ट के प्रयोग का समय

हैदराबाद में फिर धमाके हो गये. फिर अब बयानबाजी का दौर शुरू हो जायेगा कि अपराधियों को बख्शा नहीं जायेगा. आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता. संवेदनायें प्रकट करने के लिये नेताजी टेलीविजन पर बयान पढ़ते हुये दिखाई देने लगेंगे. कड़े कदम उठाये जाने की बातें फिर दोहराई जायेंगी. मुआवजे की राशि की घोषणा, टेलीविजन पर बहस-मुबाहसा.  अगर पिछले बम-विस्फोटों के समय के बयानों को देखा जाये तो फर्क सिर्फ समय, स्थान और बोलने वालों का तथा मरने वालों का होगा. यदि कार्यपालिका पूरी तत्परता के साथ काम करे तो मजाल है कि कोई बच कर निकल जाये. लेकिन ऐसा हो क्योंकर. जिम्मेदारी एक-दूसरे के ऊपर टालना सब को बखूबी आता है. हर कोई जानता है कि भारत में भ्रष्टाचार इस सब के मूल में है, लेकिन सब ठीकरा जनता के ऊपर फोड़ देते हैं, जनता ग्लानि से भर जाती है और अन्तत्वोगत्वा फिर से उसी जाल में फंस जाती है. तो फिर से चार दिन सोशल मीडिया पर भड़ास निकालिये और जब समय आये तो भ्रष्टाचार की नदी में डुबकी लगाईये और जब वोट देने जायें तो नाम के आगे-पीछे देखकर मोहर लगाईये. क्योंकि इन धमाकों में काम आता है सिर्फ आम आदमी, जिसकी वकत वोट देने के समय भर तक ही होती है.

Saturday, January 19, 2013

सरोकार की पत्रकारिता और वेब-साइट पर तस्वीरें


खबरिया चैनल मुद्दों को बड़े जोर-शोर से उठाते हैं. दिल्ली में हुये जघन्य दुष्कृत्य पर भी इन चैनलों ने देश को जागरुक करने का कार्य किया. कुछ चैनल तो बाकायदा यह दम भरते हैं कि उनके जैसा कोई नहीं. किन्तु उनकी वेब-साइट्स पर ऐसे ऐसे फोटो अपलोड़ किये जाते हैं कि उन्हें देखकर कोई भी सम्भ्रान्त व्यक्ति दोबारा साइट पर आने से तौबा कर ले.
और तो और सरोकार की पत्रकारिता का दावा करने वाले ये चैनल/अखबार, अपनी वेब-साइट पर,  एक फैशन माडल जिसने निर्वसन होने का वादा किया था, एक रियलिटी शो में शिरकत करने वाली एक महिला जिसे ** स्टार कहा जाता है, एक और कथित अभिनेत्री जिसने पैसों के लिये क्या कुछ नहीं करने के दावे किये, के तमाम नुमाइशी फोटो, जिसमें शरीर के कुछ हिस्सों को ब्लर कर या उस पर कुछ आकृति अंकित कर सैकड़ों की संख्या में पोस्ट करते हैं.
क्या केवल सर्कुलेशन/हिट्स बढ़ाने के लिये ये ऐसा नहीं करते. यदि ऐसा इस वजह से नहीं है, तो फिर क्यों? और अगर वजह यही है तो सरोकारी पत्रकारिता का झूठा दम्भ क्यों? फिर वही कि जैसा समय, वैसा मुखौटा.

Sunday, January 13, 2013

दिल्ली में हुआ जघन्य हत्याकाण्ड.


पिछले दिनों दिल्ली में हुये जघन्य बलात्कार-हत्या काण्ड के पश्चात एक कठोर कानून बनाने की मांग जोर पकड़ रही है, हाँलाकि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक कई नये मुद्दे सामने गये हैं. इस घटना को एक बार फिर से देखा जाना चाहिये.
बस गलत पते पर पंजीकृत कराई गयी थी - गलत पते पर क्यों पंजीकृत कराई गयी और क्या अब बाकी सभी बसों की जाँच हो गयी कि उनके पते सही हैं. वर्तमान स्थिति का पता नहीं, लेकिन कुछ वर्ष पूर्व यह चर्चा आम थी कि दिल्ली में दौड़ती निजी बसों के मालिक नेता और अफसर हैं.
परिवहन विभाग के अधिकारी कर्मचारी क्या इसमें दोषी नहीं हैं? किसी भी जिले के परिवहन विभाग के कार्यालय के बाहर दलालों ने अब फैन्सी नाम और काम अपना लिये हैं. इन दलालों के बारे में सभी अधिकारियों और नेताओं को पता रहता है, लेकिन इनके विरुद्ध कार्रवाई नहीं होती और ही परिवहन विभाग के अधिकारियों-कर्मचारियों के विरुद्ध. क्यों? आज भी दलालों के बिना अपना काम कराना लगभग असंभव है, क्योंकि नियम से काम कराने के लिये इतने चक्कर लगवा दिये जाते हैं कि आदमी इनकी शरण में जाना ही उचित समझता है.
यदि परिवहन विभाग के पास पर्याप्त कर्मचारी नहीं हैं तो फिर बढ़ती हुई जनसंख्या के अनुपात में भर्ती क्यों नहीं की जाती. बजाय इसके कि प्रस्ताव बने, सचिव के पास जाये फिर उसे स्वीकारा जाये, ऐसा क्यों नहीं होता कि बढ़ते हुये कार्यभार के अनुसार स्वत: ही पदों की स्वीकृति दी हुई मानी जाये.
बस के शीशों पर काली फिल्म चढ़ी थी फिर भी बस ने आठ बैरियर बेखटके पार कर लिये! इसमें आश्चर्य कैसा! पहले से ही नियम बने हैं कि किस गाड़ी में लाल बत्ती होगी, किस में नीली. किस में हूटर होगा, किस में नहीं. लेकिन होता क्या है. क्या किसी ट्रैफिक हवलदार या सब इन्स्पेक्टर की हिम्मत होगी रसूखदार व्यक्तियों, नेताओं और अफसरों की गाड़ियों से नीली-लाल-पीली बत्ती, हूटर या फिर शीशों से फिल्म उतारने की.
जिस दिन पुलिस का सर्वोच्च अधिकारी स्वयं महीने में चार-: बार औचक जाँच पर निकलेगा और बिना भेदभाव के स्वयं तथा अन्य लोगों को भी नियम पर चलाने लगेगा उस दिन स्वयं नीचे के लोग सुधर जायेंगे. यह भी बात पूरी तरह सत्य है कि कभी भी सब लोग तो सुधर सकते हैं और ही सभी को कानून का भय होता है. यदि ऐसा होने लगे तो फिर कानून के बनते ही अपराध खत्म हो जायें, लेकिन ऐसा नहीं होता. दण्ड एक डेटेरेन्ट का कार्य करता है.
बस से फेंके जाने के बाद दोनों व्यक्ति काफी देर तक पड़े रहे. लोग गुजरते रहे और उन्हें पड़ा हुआ देखते रहे. लोगों की यह मनस्थिति क्यों हुई, इस पर विचार की आवश्यकता है. अब यहाँ स्वानुभूति कर देखिये. स्वयं ऐसे लाचार पड़े हों तो मन में यही विचार आयेगा कि कोई आये और जल्दी से सहायता करे. लेकिन इसमें क्या गड़बड़ है. है, मेरे एक मित्र के भाई का एक्सीडेन्ट हो गया, उन्हें एक अस्पताल ले जाया गया, चिकित्सक ने देखा तक नहीं और बाद में उनकी मृत्यु हो गयी. चिकित्सक का क्या बिगड़ा, कुछ नहीं. जबकि उसका ऐसा कृत्य तो मानवीय दृष्टि से ही उचित था और ही पेशे में ली गयी शपथ के अनुसार. चिकित्सक के विरुद्ध कोई कार्रवाई, किसी भी फोरम पर नहीं हुई. जिसने टक्कर मारी उसका पता नहीं चल सका.
एक अन्य घटनाक्रम में एक सज्जन दुर्घटना में घायल एक व्यक्ति को उपचार हेतु ले गये. उस व्यक्ति को अस्पताल में भर्ती कराया और बाद में पुलिस को खबर की. पुलिस ने पहले तो बड़ी देर लगाई रिपोर्ट दर्ज करने में. फिर उनका बयान दर्ज किया. इस सब में उनके कई घण्टे जाया हो गये. बाद में जब उन्होंने थानाध्यक्ष से कहा कि मेरे इतने घण्टे आपने लगा दिये, मुझे इस आशय का पत्र दीजिये तो थाना प्रभारी उन्हें हड़काने लगे. चूंकि वे सज्जन एक बड़े पद पर थे इसलिये बाद में उनसे माफी मांग ली. पुलिस का यह व्यवहार ही सहायता को तात्पर व्यक्ति को किसी की मदद करने से रोक लेता है. कुछ माह पूर्व मध्य प्रदेश में एक लड़के को चाकू मार दिया था और टीवी में दिखाई दे रहा था कि पुलिस वाले उसे तुरन्त अस्पताल ले जाने की जगह उससे पूछ रहे थे कि क्या किया था तूने जो तेरे चाकू मार दिया.
पुलिस का रवैया- इस पर काफी वाद-विवाद होता रहता है, पुलिस की भूमिका पर इस मामले में भी उंगलियाँ उठी हैं. उच्च न्यायालय ने भी पुलिस की कार्यप्रणाली पर तल्ख टिप्पणी की है. यहाँ तक कि पीड़ित युवती के बयान लेने गयी मजिस्ट्रेट ने भी पुलिस के अधिकारियों पर यह आरोप लगाया कि वे अपनी तरह के प्रश्नों का जवाब चाहते थे जिससे कि अपने हिसाब से निष्कर्ष निकाल पाते. पुलिस तन्त्र में सुधार कोई नहीं चाहता, क्योंकि पुलिस में सुधार का मतलब उच्च पदासीन अधिकारी और नेताओं के लिये परेशानी का सबब. इसलिये अंग्रेजों के बनाये इस तन्त्र, जो भारतीयों को अपना गुलाम समझता था और उसी तरह से काम लेता था, को आज भी कायम रखा गया है.
अपराधों की संख्या पर नियन्त्रण- अपराध में कमी लाना हर सरकार की प्राथमिकता होती है और फिर वही प्राथमिकता थाना प्रभारी की बन जाती है. नतीजा होता है कि रिपोर्ट बमुश्किल दर्ज होती है और सीमाओं का चक्कर पड़ता है. क्या कोई भी ऐसा देश, प्रदेश, ऐसा शहर होगा जहाँ अपराध होता हो? उत्तर सीधा सा है-नहीं. अपराध की संख्या कम होती है रिपोर्ट की संख्या में कमी लाकर और इस आँकड़ेबाजी का सीधा असर पड़ता है आम जनता पर. कई बार अखबार में पढ़ा है कि अमेरिका में इस मद में इतने अपराध हुये और भारत में उसकी तुलना में इतने कम. वे लोग यह भूल जाते हैं कि ये वे आँकड़े हैं जो भारत में पंजीकृत अपराध दिखा रहे हैं, जो अपराध पंजीकृत होते ही नहीं (और ऐसे अपराध कई गुना अधिक होते हैं). इसलिये अपराध संख्या में कमी लाने के स्थान पर अपराधियों को पकड़कर जल्द सजा दिलाना उचित होगा. इस मामले में भी सीमा को लेकर आधे घण्टे तक टाल-मटोल की बात मृतका के साथी ने कही है.
नये कानून बनाने की माँग जोर पकड़ रही है. क्या नये कानून से स्थिति सुधरेगी? कहना मुहाल है, लेकिन कोई भी चीज एबसोल्यूट नहीं होती. समय और परिस्थितियों के अनुसार कानून में बदलाव होना आवश्यक हो जाता है. सख्त कानून के दुरुपयोग की भी बात चलती है. कानून चाहे सख्त हो या नरम, यदि कहीं भी दांडिक प्रावधान होते हैं तो हमेशा उसके दुरुपयोग की सम्भावना होती है. फिर दुरुपयोग करता कौन है और किसको इसका लाभ मिलता है. पुलिसवालों पर अक्सर आरोप लगते रहते हैं कि वह कानून का दुरुपयोग करते हैं. अब पुलिस के ऊपर कौन पुलिस. स्पष्ट है कि कमी तन्त्र में है. कानून में बदलाव के साथ तन्त्र में भी बदलाव की आवश्यकता है.
इस निमित्त न्यायालयों की संख्या में वृद्धि करना चाहिये. सत्ताधारी दल हमेशा इस बात के लिये कहते हैं कि न्यायालयों पर अधिक बोझ है लेकिन न्यायालय क्या आम आदमी बनायेगा. फिर क्यों किसी मुकदमे की समय सीमा निर्धारित नहीं की जाती. आखिर कितनी अधिकतम तारीखें किस तरह के मुकदमे में दी जानी चाहिये, इसका निर्धारण क्यों नहीं होता. क्यों यह निश्चित नहीं किया जाता कि कम से कम कितने मुकदमों का निर्धारण एक न्यायाधीश को करना चाहिये. न्यायिक प्रक्रिया में सुधार लाने का काम क्या विधायिका का नहीं है जिसे इसी निमित्त चुनकर भेजा जाता है.
नैतिकता का घोर पतन इस का जिम्मेदार है. शिवि ने अपना माँस दिया था, दधीचि ने हड्डियां तथा हरिश्चन्द्र ने कर्तव्य पूर्ति हेतु अपनी पत्नी को भी नहीं छोड़ा. किन्तु इतने उच्च नैतिक आदर्शों वाले देश के निवासियों का इतना नैतिक पतन. बहुत आसान होता है यह कहना कि "हम खुद को सुधार लें तो पूरा देश सुधर जायेगा". यदि सब कुछ इतना आसान ही होता तो दुनिया भर के नियम-कानून-कायदों की, पुलिस-प्रशासन-न्यायिक तन्त्र की आवश्यकता ही क्या है. पिछले सैकड़ों वर्षों की गुलामी ने नैतिक बल समाप्त कर दिया है. मानसिक रूप से स्वतन्त्र होने के लिये जिस नैतिक बल की आवश्यकता है वह खत्म हो चुका है.
भ्रष्टाचार इस सब के मूल में है. रोज ही जाने कितने ही अधिकारियों-नेताओं पर अवैध रूप से धन अर्जन करने के आरोप लगते रहते हैं, किन्तु उनमें से अधिकतम आरोप सिद्ध ही नहीं होते. एक बड़े अधिकारी पर आरोप लगाये गये, लेकिन उनका परिणाम क्या निकला, पता नहीं. यह पता ही नहीं चल सका कि गलत कौन था, अधिकारी या आरोप लगाने वाला. दो ही तरीके हैं इससे निजात पाने के, या तो भ्रष्टाचार पर काबू पाया जाये या फिर भ्रष्ट तरीकों से अर्जित धन के उपभोग को काबू में लाया जाये. अवैध सम्पत्ति अर्जित करने के लिये ही तमाम कानूनों का दुरुपयोग किया जाता है. लेकिन इस पर नियन्त्रण करेगा कौन. जिसके पास ताकत है, वे करना नहीं चाहते और जो ऐसा चाहते हैं उनके पास ताकत नहीं. निराशावादी होना अच्छा नहीं लेकिन आशा की किरण भी दूर दूर तक नहीं दिखाई देती.