Wednesday, October 31, 2012

अब ऐसे भ्रष्टाचार का क्या इलाज है?

इसके ऊपर तो भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम भी लागू नहीं हो सकता, न ही इसकी कहीं शिकायत हो सकती और अगर हो भी सकती होगी तो शायद ही कोई कार्रवाई सम्भव होगी.

मामला यूँ है कि एक मशीन खराब हो गयी. मशीन वारन्टी में थी. जो गडबड़ी आई थी वह अज्ञानतावश कम लुब्रिकेटिंग ऑइल के चलते आयी. मामला यूँ ही कुछ दिनों खिंचा. बाद में स्टीमेट आया जो लगभग पचास हजार रुपये का था. देखा तो यह पाया कि सोलह-सत्रह हजार लेबर चार्ज और बाकी के कल-पुर्जे. अब यह निर्णय हुआ कि वारन्टी में चलते कम से कम लेबर चार्ज तो न लिये जायें. मालिक से बात करने के लिये मशीन के स्वामी ने अपने एक कर्मचारी को दुकान पर भेजा. उन सज्जन ने वहाँ मौजूद इन्चार्ज से बात- चीत की लेकिन कोई नतीजा न निकला. वारन्टी के चलते इनकी माँग थी कि सबकुछ हटाया जाये या कम से कम लेबर चार्ज तो हटा ही लिया जाये. वहाँ का इन्चार्ज एक पैसा कम करने को तैयार न हो.

जब बात नहीं बनी तो दुकान के मालिक को बुलाया गया. अब ये संयोग हुआ कि मालिक उन भेजे गये कर्मचारी का पूर्व परिचित निकल आया. पूरी बात बतायी गयी. मालिक ने वहाँ के इन्चार्ज से बात की. यह सम्भावना देखी कि कौन सी चीज कम हो सकती है. नतीजा हुआ कि वही बिल मात्र चौदह हजार का रह गया. अर्थात पूरे छत्तीस हजार की कमी. स्पष्ट है कि जितनी चीजें पहले स्टीमेट में दिखाई गई थीं, वह लगनी ही नहीं थीं. वास्तविक व्यय तो चौदह हजार ही का था किन्तु उसे इन्फ्लेट कर पचास हजार का कर दिया था, जिसमें मालिक-नौकर सब शामिल थे.

अब अगर वह जान-पहचान का संयोग न होता तो दो-चार हजार या फिर अधिकतम लेबर चार्ज कम हो जाते लेकिन फिर भी सही राशि से ढाई गुना पैसा अधिक देना पड़ता. प्रश्न यह उठता है कि क्या यह भ्रष्टाचार नहीं है और इस भ्रष्टाचार की पहचान कैसे हो. इस भ्रष्टाचार के ऊपर कौन सा क़ानून लागू होता है और कौन सी धारा. उपभोक्ताओं के हो रहे, इस प्रकार के शोषण के विरुद्ध, इस भ्रष्टाचार के विरुद्ध कोई भी उपाय उपलब्ध ही नहीं. 

Tuesday, October 30, 2012

घूस माँगी जा रही है-कहने वाला निलम्बित और सिपाही की हत्या का मामला निपटा...

आज सुबह यह खबर पढ़ी कि एक पुलिस उपाधीक्षक वी० के० शर्मा को इसलिये निलम्बित कर दिया गया क्योंकि उन्होंने अनुशासनहीनता की थी और जून में एक मीटिंग में देर से पहुँचने पर यह कहा था कि "सरकार ने हेलीकाप्टर नहीं दिया है."  यह उपाधीक्षक ५८ वर्ष से ऊपर के हैं और पिछले ११ माह में पाँच स्थानान्तरण झेल चुके हैं. ताजा मामले में उन्होंने ट्रान्सफर पोस्टिंग को लेकर डी०जी०पी० समेत कई अफसरों पर रिश्वत माँगने के आरोप लगाये हैं.  

चौकी-थानों से लेकर ऊपर तक न जाने कितनी ही बार अखबारों में पढ़ने को मिलता है कि फलां जगह ऐसे पोस्टिंग हुई, वैसे पोस्टिंग हुई. मलाईदार पोस्टिंग को लेकर भी खूब निकलता रहता है. इस मामले में भी कोई जाँच वगैरह किये बिना ही अनुशासनहीनता मानते हुये निलम्बन की कार्रवाई कर दी गई. और अगर जाँच भी होती तो कौन करता. जब मुखिया के ऊपर ही आरोप हों तो फिर उनकी जाँच कौन करे. मंत्रियों के ऊपर भी आरोप लगे और कुछ को तो जेल भी जाना पड़ा लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात.

दूसरी खबर यह कि लखीमपुर में एक सिपाही को बदमाश ने गोली मार दी और फिर बदमाश को पुलिस ने मार गिराया. चलिये, तुरन्त ही इन्साफ हो गया. क्यों? क्योंकि क़ानून चलाने वाले पुलिस वाले, इसलिये जब क़ानून को चलाने वाले पर हमला होता है तो तुरन्त ही पुलिस को अपने अस्तित्व पर खतरा नजर आने लगता है. लेकिन यही पुलिस आम आदमी के मामले में क्यों उदासीन रवैया अपनाये रहती है, जिसका साक्षात प्रमाण है लाखों हत्याओं में कातिलों को न खोज पाना या/और उन्हें सजा न हो पाना. आखिर अपराध तो अपराध है, हत्या तो हत्या है, एक आम आदमी की हो या फिर पुलिस वाले की. 

दर-असल इस अपने - पराये रवैये ने ही सारे सिस्टम को खोखला कर दिया है. हर व्यक्ति अपने मामले को अलग नजरिये से देखता है और सामने वाले के मामले को अलग नजरिये से, और यह स्थिति तब और खतरनाक हो जाती है जब यही रवैया पुलिस और प्रशासन में बैठे लोग अपना लेते हैं जो न्याय दिलवाने के लिये प्रथम सीढ़ी होते हैं. कभी कभी तो बड़ा ताज्जुब होता है कि क्या हम वाकई उन लोगों के वंशज हैं जिन्होंने अपनी हड्डियाँ तक दान कर दी थीं, राक्षसों के विनाश हेतु. अथवा यह सब कपोल कल्पित है जो हमने सिर्फ अपनी वाहवाही लूटने के लिये गढ़ लिया है या फिर कोई भयंकर जिनेटिक गडबड हो गई है.

Thursday, October 25, 2012

और अब फैजाबाद में हिंसा

लिंक यह है. दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन पर यात्रा के दौरान माँ हट्टी महरानी के मंदिर के पास समुदाय विशेष के लोगों ने शोभायात्रा देखने आयीं महिलाओं के साथ अभद्रता की और इसके बाद फिर मारपीट, तल्खी फिर तनाव और आगजनी. आखिर क्यों समुदाय विशेष की ही भावनायें ऐसा जोर मारती हैं, फिर चाहे वे उनके त्योहार हों या फिर समुदाय अविशेष के. जहाँ बात बात में धार्मिक दिशा-निर्देश जारी किये जाते हों, वहाँ इस बात के लिए क्यों नहीं किये जाते कि किसी भी हालत में हिंसा न की जाये, मारपीट न की जाये. क्या शान्ति के पथ पर चलने वाले इसी तरह की शान्ति लाना चाहते हैं. आखिर कब तक इस तरह की घटनायें सभ्य समाज में होती रहेंगी और कब तक इन्हें नासमझी में, भावनाओँ के आवेग में हुई मानकर नेगलेक्ट करना चाहिये. क्या ऐसे तत्वों के खिलाफ ऐसी अनुकरणीय कार्रवाई नहीं होना चाहिये कि आने वाले समय में कोई भी व्यक्ति इस तरह का दुस्साहस न कर सके.

Wednesday, October 24, 2012

भूकम्प की भविष्यवाणी में खोट और छ: साल की चोट.

इटली में एक भूकम्प आया जिसकी भविष्यवाणी मौसम विज्ञानियों ने कर दी. लेकिन तीव्रता का सही आँकलन न कर सके. २००९ में आया यह भूकम्प ६.३ तीव्रता का था जिसके कारण काफी तबाही हुई. अब वहाँ  कुछ लोगों ने इन मौसम विज्ञानियों के विरुद्ध मुकदमा दर्ज कराया गया. मुक़दमे की सुनवाई में यह निष्कर्ष निकला कि ये मौसम विज्ञानी भ्रामक और अधूरी जानकारी देने के दोषी हैं. नतीजतन छ: साल का कारावास दिया गया.

अब भारत में इसकी कल्पना कर के देखिये. 

Saturday, October 20, 2012

घूस का जस्टिफिकेशन

"घूस क्यों लेते हो, सैलरी तो मिलती है", एक सज्जन ने अपने मित्र से कहा. सज्जन व्यापारी हैं और उनके मित्र एक स्थानीय निकाय में बाबू.
"आप लोग टैक्स देते हो जिससे सरकार सड़क, पुल इत्यादि बनवाती है" मित्र ने पूछा.
"हाँ" - सज्जन ने उत्तर दिया.
"फिर टोल टैक्स किस लिए देते हो" मित्र ने सवाल दागा.
"अरे भाई, सड़क अच्छी होती है, गड्ढे नहीं होते, जल्दी पहुँच जाते हैं. अच्छी सुविधा रहती है" सज्जन ने उत्तर दिया.
"बिलकुल यही बात लागू होती है, घूस के बारे में. काम जल्दी हो जाता है, बढ़िया हो जाता है, तुम्हें अच्छी सुविधा मिल जाती है. सरकार अच्छी सड़क बनवा देती है तो टोल टैक्स ले लेती है और हम अच्छा काम कर कुछ ले लें तो घूस." मित्र ने जस्टिफाई किया.

उक्त वार्तालाप कुछ दिनों पूर्व एक स्थानीय निकाय में दो अन्तरंग मित्रों के बीच हो रहा था जिसे  मैं संयोगवश सुन सका.

क्या अब भी आशा की किरण दिख रही है.

Saturday, October 13, 2012

आटा मंहगो हो रह्यो, फेरी खायगो कब..

कुछ महीनों पहले किसान ने गेहूँ बेचा था ११०० रुपये कुंतल. इस समय यही गेहूँ बिक रहा है १५०० रुपये को और आटा पहुँच गया है २५ रुपये किलो. तस्वीर बिलकुल साफ है, किसान का सब गेहूँ पहले ही बिक चुका है, बल्कि कहिये कि किसान को तो हर हाल में अपनी फसल को बेचना ही है, क्योंकि उसपर कर्ज है, उसके पास स्टोरेज नहीं है. सारा गेहूँ बिचौलियों ने खरीद लिया और अब वही गेहूँ पैंतीस प्रतिशत मुनाफे पर बाजार में बिक्री हेतु उपलब्ध है. आटे की शक्ल में पहुँचते पहुँचते दुगुने से ऊपर. इस भ्रष्टाचार पर कौन नकेल लगायेगा. तिस पर मंत्री जी कहते हैं कि महंगाई अच्छी है, किसान को फायदेमन्द है. पता नहीं वह कौन सा फार्मूला है जिससे किसानों को लाभ मिल रहा है और वे कौन से किसान हैं जिन्हें लाभ मिल रहा है.