भारत की अबाध रूप से बढ़ती जनसँख्या को लेकर मुझे बड़ी चिंता होती है. हालाँकि कई लोग मजाक में यह भी कहते हैं कि इस बारे में वही लोग चिंतित रहते हैं जो पैदा होते हैं. चिंता करने के मामले में मैं सरकार से कम नहीं. सरकारें भी चिन्त्तित होती रहती हैं, विधायक से मंत्री तक और मुख्य तथा प्रधानमंत्री जी भी कभी कभार चिंता जताते हैं, लेकिन इस मामले में मैं उनसे कहीं आगे हूँ.
भारत की जनसँख्या पिछले सत्तर वर्षों में तीन गुने से अधिक हो चुकी है. बढ़ती जनसँख्या की आवश्यकताओं में एक बड़ी महत्वपूर्ण आवश्यकता है आवास की. आवास बनाने के लिए जरूरत है जमीन की और फिर जमीन पर मकान बनाने के लिये ईंटों की. बहुत पुरानी बात नहीं करता, लेकिन यदि पच्चीस वर्ष पहले की तरफ लौटा जाए तो स्पष्ट पता चलता है कि शहरों का दायरा चार गुना तक बढ़ गया है. जहाँ कभी लहलहाते खेत हुआ करते थे, वहाँ अब सीमेंट की इमारतें बनी खड़ी हैं. जाहिर है कि जब मकान बनाने के लिए खेत काम में आ रहे हैं तो फिर खेत कहाँ से आयेंगे? इसलिए नए खेत आ रहे हैं जंगलों और बागों को उजाड़ कर. पुरखों के लगाये हुए बाग लोगों ने काट दिए, सिर्फ वे ही बाग बचे रह गए जो आर्थिक दृष्टि से लाभदायक थे, जिनमें फलदार वृक्ष लगे थे. बाग कटने लगे, जंगल कटने लगे और इसका प्रभाव सीधे सीधे पर्यावरण पर पड़ रहा है जिसके दुष्प्रभाव प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से पड़ने लगे हैं.
गिद्ध लुप्त होने लगे. मृत मवेशी अब लंबे समय तक दुर्गन्ध देते हुए देखे जा सकते हैं. बन्दर अब शहरों-गाँवों में घरों में घुसकर उत्पात मचाते हुए रोज ही दिखाई देने लगे हैं. जंगली कुत्ते भी अब मासूम बच्चों पर हमला करने लगे हैं. लगभग प्रतिदिन इस तरह की ख़बरें समाचार पत्रों में पढ़ने को मिल जाती हैं. कहीं जंगली जानवर मनुष्यों पर हमला कर रहे हैं तो कहीं आबादी में आने वाले जानवरों यथा हिरण इत्यादि को मनुष्य अपना शिकार बना रहा है.
इस प्रकार जंगल कटे, खेत बने और खेतों को साफ कर मकान बनाने के लिए जमीन तैयार की गयी. अब मकान बनाने के लिए आवश्यकता होती है, ईंटों की. ईंटों के लिए मिट्टी की. ईंट भट्टे वाले ईंट पाथने के लिए किसानों से मिट्टी खरीद लेते हैं. और आप यह आसानी से देख सकते हैं कि इस वजह से खेत कई-कई फुट गहराई में जा चुके हैं. लाचार किसान को अपने भरण पोषण के लिए खेत की उपजाऊ मिट्टी को बेचना ही एकमात्र विकल्प होता है. मिट्टी की यह ऊपरी परत सबसे अधिक उपजाऊ होती है जो ईंट भट्टों में जाकर ईंटों की सूरत में बदल जाती है. कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि खेत से पैदा होने वाले उत्पाद की वैल्यू कम होती जा रही है और खेत को बेचना फायदे का सौदा होता जा रहा है.
अब जिन खेतों से मिट्टी निकल जाती है उनकी सतह नीचे हो जाती है. परिणामस्वरूप बरसात के दिनों में इन खेतों में पानी भर जाता है और ये खेत तालाब में तब्दील हो जाते हैं. इस प्रकार धीरे धीरे ये कृषि क्षेत्र अपना स्वरूप खोते जा रहे हैं. आप सड़क के दोनों तरफ ऐसे तालाबों को देख सकते हैं जो ईंटों के लिए मिट्टी निकालने से बने हैं. और यही सब प्रलय के लक्षण हैं. कल ही पढ़ा था कि बंगलौर में पानी की उपलब्धता में कमी हो रही है. पूरे देश में पानी का लेवल नीचे जा रहा है. प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध दुरूपयोग हो रहा है. बढ़ती हुई जनसँख्या को रहने को घर भी चाहिए और खाने को अन्न भी. लेकिन जब खेतों में मकान बनने लगेंगे और किसान के खेत की मिट्टी ईंटों में बदल जायेगी, साल में छह महीने खेत पानी भरा होने के कारण बेकार हो जायेंगे, अधिकांश क्षेत्र पानी के मामले में डार्क जोन में आ जायेंगे, तो इस बढ़ती हुई जनसँख्या के लिए कहाँ से अन्न मिलेगा, कैसे पानी की व्यवस्था होगी और रहने के लिए जमीन कहाँ से आएगी. यदि इस बढ़ती जनसँख्या को रोकने के लिए अविलम्ब कदम नहीं उठाये गए तो फिर प्रलय तो भारत में होगी ही.