Friday, April 29, 2011

क्षुब्ध हूं, पुलिस के इन कारनामों को देखकर...

लगभग हर रोज ही अखबारों में पुलिस वालों की ज्यादती के किस्से पढने को मिल जाते हैं. अपराधों की रिपोर्ट न लिखना तो रोजमर्रा की बात बन चुकी है. फर्जी एनकाउन्टरों के किस्से अखबारों में खूब मिलते हैं. एक बार तो एक "अपराधी" का लाइव एनकाउन्टर भी देखने में आया, जिसे पुलिस वाले दौड़ने को कहते हैं और पीछे से एके-४७ का बर्स्ट खोल देते हैं. जज की तरह काम करना प्रिय शगल बन चुका है पुलिस वालों का. कुछ दिनों पहले एक घटना का जिक्र अखबार में था कि बस लूट ली गई और जब रिपोर्ट दर्ज कराने ड्राइवर और कंडक्टर थाने गये तो थानेदार ने लूटी गयी रकम पूछी और जितनी रकम लुटी थी उतनी देकर विदा कर दिया. लखनऊ में एक रैली में एक डीआईजी साहब को एक व्यक्ति को जूतों से रौंदते हुये देखा जा चुका है. उसी पुलिस के एक सिपाही को मेरठ में किसी नेता ने जमकर पीटा और पुलिस की हिम्मत नहीं हुई अपने सिपाही को बचाने की. उसी पुलिस के वीर अफसर ने वीरता दिखाते हुये महाराष्ट्र के कोल्हापुर में ट्रेनी महिला सिपाहियों का यौन शोषण किया और उसके बाद एक लड़की की मेडिकल रिपोर्ट तक बदलवा दी, पहले की दो रिपोर्ट में वह लड़की गर्भवती थी और आखिरी रिपोर्ट में नहीं. मकान-दुकान पर कब्जा करने, खाली कराने, सट्टे में लिप्त होने जैसी मामूली बातें तो रोज ही शाया होती रहती हैं. यह वही पुलिस है जो क्राउन के प्रति समर्पित थी और यहां के लोगों पर अत्याचार करती थी, साथ में अपना घर भरती जाती थी. सन सैंतालीस के बाद फर्क अवश्य आया और वह यह कि अभी तक जो वफादारी क्राउन के प्रति थी, वह सत्तादेवी के प्रतिनिधियों की दिशा में मुड़ गयी. ये वही सिविल सर्वेन्ट हैं जिन्हें लौह ढ़ांचा माना गया था, और यह बात भी पूर्णतया सही है, ये लोहे के ही हैं, ठोस लोहे के. मानवीय अनुभूतियों और संवेदनाओं से परे. इन्होंने भी वही प्रक्रिया अपनाई जो पुलिस ने अच्छी समझी. जहां तक मुझे समझ आता है जस्टिस मुल्ला ने बड़ी तीखी टिप्पणी की थी, पुलिस पर और पुलिसिया मानसिकता पर. इसी पुलिस सेवा का एक अधिकारी फरार घोषित हो चुका है, जिसे आजतक पुलिस नहीं खोज पाई. डान की पार्टी में नृत्य करते हुये नजर आते हैं बड़े बड़े पुलिस वाले. एक अधिकारी अपना कमोड होमगार्डस से साफ कराता है. लगता है ये लोग पुलिस को Principal Organisation of Legislatively Incorporated Criminal Elements में बदल ही देंगे. भारत के लोगों की तकदीर में ऐसे ही छाले पड़े हुये हैं. 

Tuesday, April 26, 2011

श्री हरिगोविन्द विश्वकर्मा जी के द्वारा अनुवाद किया हुआ शाजिया नवाज का एक लेख

श्री हरिगोविन्द विश्वकर्मा जी के ब्लाग पर इस लेख को पढ़ें. यह शाजिया नवाज का लिखा हुआ है जिसे बहुत सुन्दरता से श्री हरिगोविन्द जी ने अनुवादित किया है. मुस्लिम स्त्रियों को बुर्का ओढ़ाने के बारे में है. हो सकता है कि आपमें से बहुत से लोगों ने पढ़ भी रखा हो, मुझे अच्छा लगा इसलिये शेयर करने का फैसला लिया.

Monday, April 25, 2011

कमी मेरे कम्प्यूटर में है या मेरी दीद में अथवा वेबसाइट की लापरवाही

अभी शीला जी को शाली, और सीओ की जगह डीएम लिखने का किस्सा तो दिखाया ही था, एक नमूना और देखिये, यह किस भाषा में लिखा हुआ है, जरा पढ़ने की कोशिश कीजिये. ब्राह्मी अथवा खरोष्ठी तो नहीं ही है. अब कौन सी लिपि है यह, विज्ञ जन ही बता पायेंगे. यह कमी मेरे कम्प्यूटर में है या मेरी दीद में या फिर वेबसाइट की लापरवाही, जरा बताइये तो सही.

Sunday, April 24, 2011

ये साइडलाइन पोस्टिंग क्या होती है.....

"श्री...... इतने साल से साइडलाइन पोस्टिंग भुगत रहे हैं". एक अखिल भारतीय सेवा के अधिकारी के बारे में एक वेबसाइट पर यह पंक्तियां लिखी देखीं तो बड़ा आश्चर्य हुआ. आखिर यह साइडलाइन पोस्टिंग चीज क्या है और मेनस्ट्रीम पोस्टिंग क्या बला है. मुझे जहां तक जानकारी है कि किसी भी सेवा नियमावली में इस प्रकार की पोस्टिंग के बारे में कोई जानकारी दर्ज नहीं है. अब यह आफ द रिकार्ड चीज रही होगी तो इस पोस्टिंग से जुड़ी चीजें भी आफ द रिकार्ड ही होती होंगी. किसी भी सेवा में कोई पद जब महत्व का नहीं रहता तो खत्म कर दिया जाता है, इसलिये साइडलाइन पोस्टिंग जैसी चीज कम से कम मेरे गले नहीं उतरती. हर व्यक्ति का, हर पद का अपना महत्व है. सेना के ट्रक-ड्राइवर का भी उतना ही महत्व है जितना कि लड़ाकू विमान उड़ाने वाले पायलट का, बस अंतर समय और प्राथमिकता का है. अब यदि कोई यह शिकायत करे कि किसी व्यक्ति को साइडलाइन पोस्टिंग दी गयी है तो उसे पहले-पहल  दोनों पोस्टिंग में अन्तर बताना चाहिये कि क्या साइडलाइन पोस्टिंग में, मेनस्ट्रीम पोस्टिंग से एक-दो इन्क्रीमेंट तो कम नहीं कर दिये जाते या फिर कोई अन्य आर्थिक दण्ड तो नहीं लगा दिया जाता, यदि ऐसा नहीं है तो फिर मेनस्ट्रीम पोस्टिंग में फिर अवश्य ही कोई ऐसी चीज छुपी रहती है जो वैधानिक रूप से ठीक नहीं है, ऐसे द्रव्यों की प्राप्ति समाहित है, जो साइडलाइन पोस्टिंग में उस पद पर नहीं हो सकती होगी, अन्यथा फिर दोनों में क्या अन्तर रह जाता है. या फिर मेनस्ट्रीम पोस्टिंग में अपना रुतबा दिखाने का स्कोप रहता होगा जो कि साइडलाइन पोस्टिंग में नहीं रह जाता.
मेरा प्रश्न अपनी जगह अभी भी वैसे ही सर उठाये खड़ा है, कोई उत्तर मिलेगा क्या?

Saturday, April 23, 2011

खबर क्या है और शीर्षक क्या है.....

१-इस फोटो को देखिये और तथ्यों को पढ़िये. हिन्दी खबरों के प्रकाशन के जिम्मेदार व्यक्ति यह भी देखना पसन्द नहीं करते कि शीर्षक क्या कह रहा है और अन्दर तथ्य क्या लिखे हुये हैं. या फिर वे इतने अधिक व्यस्त हैं कि हिन्दी खबरों पर ध्यान देना जरूरी नहीं समझते.





 २-अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के पक्षधर कौन होंगे हमारे देश में, जाहिर है कि अखबार और खबरिया चैनल तथा वेबसाइट्स. लेकिन अब इस को क्या कहेंगे जब वे अपने विरोध में आये हुये कमेन्ट को छापने से ही गुरेज करें. आखिर यह कैसी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता कि आप जो भी लिख दो, वह ठीक, आपकी हां में हां मिलाने वाला ठीक और जो आपकी खबर के विरोध में कोई चार लाइनें लिख दे तो उसे छापने से गुरेज.
कई चैनलों पर संजीव भट्ट जी का बयान तो आ रहा है, प्रिन्ट मीडिया में भी इसकी खूब खबर है, लेकिन यास्मीन ने जो गम्भीर आरोप तीस्ता सीतलवाड़ पर लगाये हैं, उनके बारे में एक-दो जगह छोड़कर कहीं कोई सुध नहीं. आखिर यह किस प्रकार की पत्रकारिता है जो पहले से ही तय कर लेती है कि क्या छापना है और क्या नहीं.

Sunday, April 17, 2011

वीडियोग्राफी क्यों नहीं हो सकती...

पंसारी तक की दुकान में छोटे-छोटे, कांच के चमकते हुये गोले लटके दिखाई देते हैं, यानी सीसीटीवी के कैमरे. जिनके माध्यम से लाला अपने कर्मियों पर निगाह रखता है कि कौन काम कर रहा है, कौन नहीं. कोई उसका माल तो दांये-बांये नहीं कर रहा. होटल-रेस्टोरेन्ट से लेकर कार्यालयों और बैंकों में यह युक्ति अपना कार्य कर रही है. सार्वजनिक स्थलों और संवेदनशील जगहों पर भी क्लोज सर्किट टेलीविजन के कैमरे देखे जा सकते हैं.
प्रस्तावित लोकपाल बिल के सम्बन्ध में ड्राफ्टिंग कमेटी की पहली बैठक हो चुकी है, जिसके बाद कपिल सिब्बल साहब यह कहते हुये सुने गये कि कमेटी के सदस्य काफी "समझदारी" दिखा रहे हैं. यद्यपि इसके बाद अरविन्द केजरीवाल जी ने काफी कुछ नसीहत भी सिब्बल जी को दे डाली. जैसा कि सुना है कि ड्राफ्टिंग कमेटी के गैर -सरकारी  सदस्य इन मीटिंगों की वीडियोग्राफी कराने के पक्ष में हैं किन्तु सरकारी पक्ष के सदस्य नहीं.
मेरी समझ में नहीं आता कि वीडियोग्राफी कराने में हर्ज क्या है. मुझे यह भी समझ में नहीं आता कि वीडियोग्राफी से किस प्रकार का खतरा हो सकता है या क्या कानूनी दिक्कतें हो सकती हैं. बल्कि मैं तो और एक कदम आगे जाकर कहूंगा कि इन मीटिंगों का "लाइव" प्रसारण होना चाहिये जिससे कि पूरे देश को यह पता तो चले कि उनके निर्वाचित प्रतिनिधियों का और गैर-सरकारी सदस्यों का रुख मीटिंगों में कैसा रहता है, उनके विचार क्या होते हैं. किस प्रकार के सवाल-जवाब होते हैं, कैसे कैसे तर्क-वितर्क-कुतर्क सामने रखे जाते हैं, इन सभी सदस्यों की भाव- भंगिमायें कैसी रहती हैं. कौन क्या चाहता है, किसका व्यवहार कैसा रहता है. कम से कम असली सूरत तो दिखाई देना चाहिये हम लोगों को.

Thursday, April 14, 2011

अन्ना हजारे के अनशन के तारतम्य में.

अन्ना हजारे के अनशन के बाद बहुत सारी क्रियायें, प्रतिक्रियायें, तर्क, वितर्क और कुतर्क सामने आये. बहुत से लोगों ने कई शंकायें और आशंकाये भी जताईं. विशेषत: राजनीतिबाज, जिन्हें इस अनशन के दौरान रोष का सामना करना पड़ा, वे  कहीं सामने से तो  कहीं पीछे से वार करते रहे.  कुछ  स्वयंभू पत्रकारों ने भी अन्ना हजारे

Wednesday, April 13, 2011

हिन्दी है न, इसलिये.....


अब यह भाग्यशाली "शाली" कौन हैं, पता नहीं, लेकिन लगता है "शीला" को ही "शाली" लिख दिया  और  "सुपर" को "सपर" लिख दिया गया है. खबर का शीर्षक देखिये.  ऐसी छोटी-मोटी गलतियां तो हिन्दी में, हिन्दी के साथ, हिन्दी वालों के साथ हो ही जाती हैं.

Tuesday, April 12, 2011

क्या देश में एक प्रापर्टी डाटा बैंक नहीं होना चाहिये...

कालेधन को अधिकतर खपाया जाता है, जमीन-मकान-सोने की खरीद में और या फिर शेयर मार्केट में धन लगाकर. हमारे देश में जमीन-जायदाद खरीदना और गहने खरीदना बहुत प्रिय शगल है लोगों का. और कालेधन को लगाने का इससे मुफीद तरीका कोई नहीं. क्या देश के अन्दर कोई आनलाइन प्रापर्टी डाटा बैंक नहीं होना चाहिये जिस पर प्रापर्टी का पूरा ब्यौरा दर्ज हो, मसलन किसने उसे बेचा, खरीदा किसने, कीमत क्या थी और जिसने खरीदा उसके पास आय का स्रोत क्या है. आजकल लोग प्रापर्टी खरीदते भले काली कमाई से हों लेकिन उसे सफेद बनाने के लिये तमाम तरीके अपनाते हैं. ऐसे में प्रापर्टी लोन पर खरीदना एक अच्छा विकल्प होता है. इस डाटा बैंक में यह भी हो कि यदि लोन लिया है तो कितना, कितने साल का और लोन का भुगतान करने वाले के पास आय के क्या स्रोत हैं. यही बात निजी मेडिकल और इन्जीनियरिंग कालेज में अपने बच्चों को पढ़ाने वाले व्यक्तियों का है. निजी मेडिकल कालेज में एक विद्यार्थी पर पच्चीस लाख रुपये खर्च होना मामूली बात है. जो लोग इतनी अधिक फीस देते हैं, उनके आय स्रोत क्या हैं? क्या हम सब, जो अपनी गाढ़ी कमाई का एक हिस्सा देश के नेताओं-कर्मचारियों के वेतन-भत्तों के लिये देते हैं,  को इतना जानने का भी अधिकार नहीं, कि वे व्यक्ति कौन हैं जो हमारी गाढ़ी कमाई पर मौज कर रहे हैं.


Wednesday, April 6, 2011

अन्ना हजारे को अक्ल सिखाते हमारे बुद्धिजीवी

अन्ना हजारे जन-लोकपाल  को लेकर अनशन पर बैठ चुके हैं. अब हमारे यहां के बुद्धिजीवी उन्हें अकल सिखा रहे हैं. एक प्रवक्ता कह रहे हैं कि अन्ना को यह नहीं करना चाहिये, लोकतन्त्र के अन्दर ऐसी जिद ठीक नहीं. अन्ना को बताना चाहिये वे क्या चाहते हैं, बात करना चाहिये. एक अखबार वाले कह रहे हैं कि लोकतन्त्र है, ठीक है, लेकिन अन्ना को ऐसा नहीं करना चाहिये. ठीक है आप सबकी राय मान ली जायेगी, आप लोग खुद ही बताओ कि आप की पार्टी और आप के अखबार ने क्या किया है भ्रष्टाचार के विरुद्ध. कौन सा ठोस कदम इतने सालों में उठाया है भ्रष्टाचार से लड़ने के लिये. क्या प्रिवेंशन आफ करप्शन एक्ट काफी है. इस भ्रष्टाचार के विरुद्ध क्या किया जिसमें चालीस रुपये की दाल सौ रुपये में बिकवा दी, पच्चीस रुपये की चीनी सत्तर रुपये में बिकवा दी. निजी स्कूल, निजी अस्पताल अपनी मनमर्जी से फीस में दो सौ प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी कर देते हैं. विशेष स्कूल की विशेष किताबें विशेष दुकान पर विशेष मूल्य में. विशेष चिकित्सक की लिखी विशेष दवाई विशेष दुकान पर विशेष मूल्य में. एक सड़क जो बनना चाहिये थी, नहीं बनी. जो सात साल चलना चाहिये थी, सात महीने में उखड़ गयी. प्रधान जी-विधायक जी-सांसद जी जो कभी साइकिल पर चलते थे, पद पाते ही स्कूलों-कालेजों के संचालक बन गये और करोड़ों में खेलने लगे. हर चौराहे पर मची लूट किसी को नहीं दिखाई देती. प्रवक्ता जी और सम्पादक जी आपने इस सबके विरुद्ध क्या किया है, जरा हिसाब दें...

Friday, April 1, 2011

पोस्टमार्टम रिपोर्ट देने के भी तीन सौ रुपये.....

चौकी से पोस्टमार्टम रिपोर्ट की प्रतिलिपि लेने के लिये पांच चक्कर और तीन सौ रुपये. देश में किसी सुधार, किसी बदलाव, किसी क्रान्ति की गुंजाइश है ?