Saturday, December 31, 2011

भ्रष्टाचार पर अरण्य रोदन के विषय में

बात भ्रष्टाचार की खूब चल रही है, नित नये सु/कुविचार और सु/कुतर्क भी सुनने को मिलते हैं. एक और भी विचार आजकल चलन/फैशन में है, जिसे हमारे यहां के बुद्धिजीवी ब्लाग/सोशल साइट्स और अखबारों में निरन्तर प्रकाशित कर/करवा रहे हैं. वह है कि भ्रष्टाचार के लिये भ्रष्टाचार मिटाने के लिये आम आदमी को आगे आना चाहिये और उसे भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ना चाहिये, भ्रष्टाचारी भी समाज का अंग हैं, उनका बहिष्कार होना चाहिये. यदि आप घूस देंगे नहीं तो लेने वाले को मिलेगी कैसे और आप स्वयं क्या करते हैं, नक्शे में कुछ और दिखाया जाता है, बनाया कुछ और जाता है, रजिस्ट्री कराते समय स्टाम्प कम लगे, इसलिये आप कम दाम दिखाते हैं, या फिर रेलयात्रा में सीट पाने के लिये, वगैरा वगैरा. इसमें सारी बातें सही हैं और मैं इससे सहमत भी हूं, लेकिन मैं उनके इस विचार से कतई इत्तफाक नहीं रखता कि भ्रष्टाचार इसलिये बढ़ रहा है कि आम आदमी ऊपर लिखी गयी तथा इसके अतिरिक्त इसी प्रकार की और गलत चीजों को अपनाता है तथा बढ़ावा देता है.

जैसा कि मैंने पाया है कि आम आदमी खुशी खुशी भ्रष्ट आचरण को बढ़ावा तब देता है जब वह स्वयं अवैधानिक कार्य करता है जिसमें ऊपर लिखी हुई सारी बातें शामिल हैं. लेकिन जहाँ पूरा सिस्टम ही ऐसा बनाकर रख दिया गया हो जिसमें पैदा होने के प्रमाणपत्र  से लेकर मरने के सर्टीफिकेट बनवाने तक पैसा देना पड़े तो कौन सा ऐसा व्यक्ति होगा (अपवाद छोड़कर-जिसमें समाज के बहुत ताकतवर व्यक्ति आते हैं) जो इस कुचक्र से बच सकता है. रेलवे में रिजर्वेशन को लेकर अक्सर बड़ी बड़ी बहसें छिड जाती हैं कि आम आदमी सीट की प्राप्ति के लिए किस तरह से भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है. मान लीजिए कि टीटी के पास दो सीटें उपलब्ध हैं और जाने वाले आठ लोग मौजूद हैं. टीटी किसे प्राथमिकता देगा, जिससे उसे कुछ लाभ होगा (यदि टीटी उस प्रकार का है तब). अब इस स्थिति में आठों लोग ही प्रयासरत होते हैं कि कैसे भी एक सीट हासिल हो जाये. अमूमन यह होता है कि टीटी के पास जायें तो वह सीट उपलब्ध होने पर भी मना कर देता है और जाहिर है कि आम आदमी के पास यह सूचना नहीं होती कि यह बात सत्य है या नहीं. और जहाँ कोई आदमी अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु भ्रष्टाचार करने पर आमादा होता है वहाँ भी यह जिम्मेदारी शासन की होती है जिसके लोगों को अपने काम करने के लिए वेतन दिया जाता है और उनकी जिम्मेदारी बनती है जिनके कन्धों पर गलत कार्य-व्यवहार रोकने के लिए नियुक्त किया जाता है.

थोड़ी-बहुत देर बाद  लोग आगे पीछे घूमते हैं तो यह देखा जाता है कि कौन सा व्यक्ति मतलब का है. अब जो व्यक्ति मतलब का है उसे आश्वासन दे दिया जाता है और बाद में सीट भी. मान लीजिए कि जो व्यक्ति सबसे पहले आया था और उस व्यक्ति को सीट न देकर बाद में आने वाले व्यक्ति को सीट दे दी गयी तो फिर ऐसे में एक ईमानदार व्यक्ति को क्या हासिल हुआ. कुछ नहीं. लोग इस पर कहते हैं कि भैया ऐसे मामलों में शिकायत करो. किससे करो? और उसका नतीजा क्या? पहली बात यह कि जिसे आवश्यकता थी और जो हक़दार था उसे सीट नहीं मिली. अब शिकायत करने के लिए अपनी जेब से बीस-तीस रुपये खर्च करो और फिर इन शिकायतों का क्या अंजाम होता है, सब जानते हैं. चूँकि इस प्रकार की शिकायतों पर यदि तुरंत कार्रवाई हो तभी कुछ सार्थक घटित हो सकता है. अब यदि व्यक्ति की रेल का समय रात का है ऐसे समय में शिकायत कौन सुनेगा जब कि सामान्य समय में भी शिकायतों पर कार्रवाई नहीं हो पाती.

कहीं दिक्कत संसाधनों को लेकर भी होती है. और जाहिर है कि किसी भी सरकार के लिए सबसे अच्छा बचाव हो सकता है कि हमारे पास संसाधन नहीं हैं. जिस प्रकार से जनसँख्या अबाध गति से बढती जा रही है, उस हिसाब से तो कभी भी संसाधन पर्याप्त नहीं हो सकते. जनसँख्या वृद्धि->मंहगाई->भ्रष्टाचार यह सभी एक ही चक्र में समाहित हैं और एक दूसरे का कारक और कारण भी हैं. और भारत के भोले भाले लोग सियासतदानों की इन चालाकियों को समझ नहीं पाते. उन्हें इसीलिए इस चक्र में उलझाया गया है कि सुबह से शाम तक पेट भरने की ही जुगत में लगे रहें. जब दिन भर इसी में लगे रहेंगे तो और किसी चीज पर निगाह डालने का समय ही नहीं मिलेगा और फिर इन कुचर्कों में यूँ ही फँसे रहेंगे.

लोग यह भी कहते हैं कि लोकपाल के लिए कुंदन जैसा व्यक्ति कहाँ से आएगा. हमारे यहाँ तमाम संवैधानिक संस्थान हैं, न्यायपालिका है जिनमें तमाम उच्च नैतिक मानदंड अपनाने वाले लोग हुए हैं. आखिर वे भी तो यहीं से आये हैं. और फिर यदि यही माना जाए कि एक व्यक्ति भी कुंदन की तरह खरा नहीं मिल सकता तो फिर तमाम सरकारी-निजी-गैर सरकारी संस्थाओं में बैठे लोग सब के सब गलत हैं. कदापि नहीं. जाने कितने लोग हैं जो आज भी पूरे ईमानदार हैं, और जो व्यक्ति ७०-८०-९० प्रतिशत भी ईमानदार है उसे सौ प्रतिशत में बदलते देर नहीं लगती. ऐसे भी लोग हैं जो पैसा लेते नहीं लेकिन उन्हें कहीं न कहीं देना पड़ जाता है तो इस तरह के लोगों को आप भ्रष्ट नहीं कह सकते. न जाने कितने महकमे ऐसे हैं जहाँ तबादले को उद्योग बना दिया गया है. और फिर इसे भ्रष्टाचार क्यों नहीं माना जाता कि कुछ पैसे वाले लोग तमाम संसाधनों पर कब्ज़ा कर लेते हैं और फिर उनकी मनमानी कीमत वसूल करते हैं. रियल एस्टेट में जाकर देखिये कि किस तरह किसानों की जमीन निहायत कम दामों पर खरीद ली जाती है और फिर मन-माने दामों में बेची जाती है. चीनी और अरहर का मामला सामने है जहाँ इसका स्टॉक कर लिया गया और फिर अंधाधुंध दामों पर ये वस्तुएँ बेची गयीं.

चतुर लोग माहौल को ऐसा बना देते हैं कि तन-मन-धन लुटा देने वाला आम आदमी स्वयं को ही भ्रष्टाचार का जनक मानने लगता है.  अगर भ्रष्टाचार को रोकने में कठिनाई आ रही है तो फिर ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं बनाई जा रही जिससे कि अवैध कमाई करने वाला उसे खर्च न कर सके. जब अवैध रूप से कमाया गया धन व्यय ही नहीं किया जा सकेगा तो फिर उसे कमाएगा कौन और क्यों. यह मानना ही पड़ेगा कि देश में अप्रत्याशित रूप से बढ़ी महँगाई के पीछे भी यही काला धन है. लेकिन संसद में क्या हुआ सब के सामने आ चुका है. श्रीमान राम जेठमलानी जी के भाषण में जो विषय उठाये गए वे बहुत महत्वपूर्ण थे लेकिन!

Sunday, December 18, 2011

भोपाल में कुपोषण से बच्ची की मौत - दोषी कौन?

भोपाल में एक बच्ची की मौत कुपोषण अर्थात भूख के चलते हो गई. खबर के मुताबिक इस दो वर्षीय बच्ची के माँ-बाप श्रमिक थे. बच्ची बीमार हुई, उसे लेकर अस्पताल पहुंचे,जहाँ उसकी मौत हो गयी.जैसे कि हमेशा होता आया है कि इस देश में भूख से कोई नहीं मरता, इसकी मौत के कारण को सुनिश्चित करने के लिए पोस्ट-मार्टम कराया गया और जिसमें यह पाया गया कि उसके सीने और दिल में चोट पाई गयी. और फिर उस बच्ची के माँ-बाप के विरुद्ध मुक़दमा लिख दिया गया-गैर इरादतन हत्या का.  
क्या कोई माँ-बाप इतने निष्ठुर हो सकते हैं कि पैदा करने के दो साल बाद तक उसे पालने के बाद अपनी बेटी को मार दें, भले भूखा रखकर ही सही. ऊपर से ताज्जुब यह कि बच्ची की मृत्यु जून में हुई थी और मुक़दमा अब दर्ज हुआ है. हम थोथी नैतिकता की दुहाई देने वाले लोग, धिक्कार है हम पर. सबसे अधिक गुस्सा आता है मुझे उन सरकारी लोगों पर, जो जब तक लाइन के इस पार खड़े होते हैं, उनके अंदर संवेदनाओं का समुद्र हिलोरें लेता रहता है, लेकिन लाइन के उस पार पहुंचते ही उनकी आँखे मुंद जातीं हैं, वह संवेदनाओं का समुद्र सूखकर एक मरुभूमि में बदल जाता है.
लोग चिल्ला रहे हैं कि नई पीढ़ी आ रही है, उससे बहुत उम्मीदें हैं. तो भैया यह भी बताओ कि कौन सी पीढ़ी सीधे बूढी ही पैदा हुई थी. जो आज बूढ़े हैं, वे कल युवा थे, जो आज युवा हैं, वे कल बूढ़े होंगे. ये दौर यूं ही चलेगा. निराश होना अच्छा नहीं, लेकिन रोशनी कहीं नहीं. समाज बदलने के लिए सोच का होना आवश्यक है, लोग समग्र को नहीं देखते, केवल स्व तक सीमित हैं और इसी सोच के चलते सैकड़ों साल गुलाम रहे. सोच आये कहाँ से, जब कि शिक्षित न हों. और ये इंतजाम पहले ही पुख्ता हैं कि आप डिग्री तो ले लें, लेकिन शिक्षित न हो सकें. इतिहास पहले से ही दूसरों के चश्मे से देखकर लिखा हुआ पढाया जा रहा है, तो कहाँ से नींव मिले और खोखले आधारों पर कभी भी मजबूत इमारत नहीं बन सकती. 

Friday, December 9, 2011

कई महीनो के बाद अपने अकाउंट में लाग-इन !

आज मैं कई महीनो के बाद अपने अकाउंट को लाग-इन कर सका. ubuntu linux को इन्स्टाल कर लिया है. 3G मोडेम बढ़िया कार्य कर रहा है. लेकिन एक दो कठिनाईयां हैं. पहला कि बराहा को कैसे इन्स्टाल किया जाए जिससे कि मैं रोमन में टाइप कर हिंदी लिख सकूं तथा दूसरा यह कि skpye किस तरह से इन्स्टाल हो गया और इसमें usb वेब-कैम कैसे इन्स्टाल हो सकेगा.