Sunday, January 13, 2013

दिल्ली में हुआ जघन्य हत्याकाण्ड.


पिछले दिनों दिल्ली में हुये जघन्य बलात्कार-हत्या काण्ड के पश्चात एक कठोर कानून बनाने की मांग जोर पकड़ रही है, हाँलाकि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक कई नये मुद्दे सामने गये हैं. इस घटना को एक बार फिर से देखा जाना चाहिये.
बस गलत पते पर पंजीकृत कराई गयी थी - गलत पते पर क्यों पंजीकृत कराई गयी और क्या अब बाकी सभी बसों की जाँच हो गयी कि उनके पते सही हैं. वर्तमान स्थिति का पता नहीं, लेकिन कुछ वर्ष पूर्व यह चर्चा आम थी कि दिल्ली में दौड़ती निजी बसों के मालिक नेता और अफसर हैं.
परिवहन विभाग के अधिकारी कर्मचारी क्या इसमें दोषी नहीं हैं? किसी भी जिले के परिवहन विभाग के कार्यालय के बाहर दलालों ने अब फैन्सी नाम और काम अपना लिये हैं. इन दलालों के बारे में सभी अधिकारियों और नेताओं को पता रहता है, लेकिन इनके विरुद्ध कार्रवाई नहीं होती और ही परिवहन विभाग के अधिकारियों-कर्मचारियों के विरुद्ध. क्यों? आज भी दलालों के बिना अपना काम कराना लगभग असंभव है, क्योंकि नियम से काम कराने के लिये इतने चक्कर लगवा दिये जाते हैं कि आदमी इनकी शरण में जाना ही उचित समझता है.
यदि परिवहन विभाग के पास पर्याप्त कर्मचारी नहीं हैं तो फिर बढ़ती हुई जनसंख्या के अनुपात में भर्ती क्यों नहीं की जाती. बजाय इसके कि प्रस्ताव बने, सचिव के पास जाये फिर उसे स्वीकारा जाये, ऐसा क्यों नहीं होता कि बढ़ते हुये कार्यभार के अनुसार स्वत: ही पदों की स्वीकृति दी हुई मानी जाये.
बस के शीशों पर काली फिल्म चढ़ी थी फिर भी बस ने आठ बैरियर बेखटके पार कर लिये! इसमें आश्चर्य कैसा! पहले से ही नियम बने हैं कि किस गाड़ी में लाल बत्ती होगी, किस में नीली. किस में हूटर होगा, किस में नहीं. लेकिन होता क्या है. क्या किसी ट्रैफिक हवलदार या सब इन्स्पेक्टर की हिम्मत होगी रसूखदार व्यक्तियों, नेताओं और अफसरों की गाड़ियों से नीली-लाल-पीली बत्ती, हूटर या फिर शीशों से फिल्म उतारने की.
जिस दिन पुलिस का सर्वोच्च अधिकारी स्वयं महीने में चार-: बार औचक जाँच पर निकलेगा और बिना भेदभाव के स्वयं तथा अन्य लोगों को भी नियम पर चलाने लगेगा उस दिन स्वयं नीचे के लोग सुधर जायेंगे. यह भी बात पूरी तरह सत्य है कि कभी भी सब लोग तो सुधर सकते हैं और ही सभी को कानून का भय होता है. यदि ऐसा होने लगे तो फिर कानून के बनते ही अपराध खत्म हो जायें, लेकिन ऐसा नहीं होता. दण्ड एक डेटेरेन्ट का कार्य करता है.
बस से फेंके जाने के बाद दोनों व्यक्ति काफी देर तक पड़े रहे. लोग गुजरते रहे और उन्हें पड़ा हुआ देखते रहे. लोगों की यह मनस्थिति क्यों हुई, इस पर विचार की आवश्यकता है. अब यहाँ स्वानुभूति कर देखिये. स्वयं ऐसे लाचार पड़े हों तो मन में यही विचार आयेगा कि कोई आये और जल्दी से सहायता करे. लेकिन इसमें क्या गड़बड़ है. है, मेरे एक मित्र के भाई का एक्सीडेन्ट हो गया, उन्हें एक अस्पताल ले जाया गया, चिकित्सक ने देखा तक नहीं और बाद में उनकी मृत्यु हो गयी. चिकित्सक का क्या बिगड़ा, कुछ नहीं. जबकि उसका ऐसा कृत्य तो मानवीय दृष्टि से ही उचित था और ही पेशे में ली गयी शपथ के अनुसार. चिकित्सक के विरुद्ध कोई कार्रवाई, किसी भी फोरम पर नहीं हुई. जिसने टक्कर मारी उसका पता नहीं चल सका.
एक अन्य घटनाक्रम में एक सज्जन दुर्घटना में घायल एक व्यक्ति को उपचार हेतु ले गये. उस व्यक्ति को अस्पताल में भर्ती कराया और बाद में पुलिस को खबर की. पुलिस ने पहले तो बड़ी देर लगाई रिपोर्ट दर्ज करने में. फिर उनका बयान दर्ज किया. इस सब में उनके कई घण्टे जाया हो गये. बाद में जब उन्होंने थानाध्यक्ष से कहा कि मेरे इतने घण्टे आपने लगा दिये, मुझे इस आशय का पत्र दीजिये तो थाना प्रभारी उन्हें हड़काने लगे. चूंकि वे सज्जन एक बड़े पद पर थे इसलिये बाद में उनसे माफी मांग ली. पुलिस का यह व्यवहार ही सहायता को तात्पर व्यक्ति को किसी की मदद करने से रोक लेता है. कुछ माह पूर्व मध्य प्रदेश में एक लड़के को चाकू मार दिया था और टीवी में दिखाई दे रहा था कि पुलिस वाले उसे तुरन्त अस्पताल ले जाने की जगह उससे पूछ रहे थे कि क्या किया था तूने जो तेरे चाकू मार दिया.
पुलिस का रवैया- इस पर काफी वाद-विवाद होता रहता है, पुलिस की भूमिका पर इस मामले में भी उंगलियाँ उठी हैं. उच्च न्यायालय ने भी पुलिस की कार्यप्रणाली पर तल्ख टिप्पणी की है. यहाँ तक कि पीड़ित युवती के बयान लेने गयी मजिस्ट्रेट ने भी पुलिस के अधिकारियों पर यह आरोप लगाया कि वे अपनी तरह के प्रश्नों का जवाब चाहते थे जिससे कि अपने हिसाब से निष्कर्ष निकाल पाते. पुलिस तन्त्र में सुधार कोई नहीं चाहता, क्योंकि पुलिस में सुधार का मतलब उच्च पदासीन अधिकारी और नेताओं के लिये परेशानी का सबब. इसलिये अंग्रेजों के बनाये इस तन्त्र, जो भारतीयों को अपना गुलाम समझता था और उसी तरह से काम लेता था, को आज भी कायम रखा गया है.
अपराधों की संख्या पर नियन्त्रण- अपराध में कमी लाना हर सरकार की प्राथमिकता होती है और फिर वही प्राथमिकता थाना प्रभारी की बन जाती है. नतीजा होता है कि रिपोर्ट बमुश्किल दर्ज होती है और सीमाओं का चक्कर पड़ता है. क्या कोई भी ऐसा देश, प्रदेश, ऐसा शहर होगा जहाँ अपराध होता हो? उत्तर सीधा सा है-नहीं. अपराध की संख्या कम होती है रिपोर्ट की संख्या में कमी लाकर और इस आँकड़ेबाजी का सीधा असर पड़ता है आम जनता पर. कई बार अखबार में पढ़ा है कि अमेरिका में इस मद में इतने अपराध हुये और भारत में उसकी तुलना में इतने कम. वे लोग यह भूल जाते हैं कि ये वे आँकड़े हैं जो भारत में पंजीकृत अपराध दिखा रहे हैं, जो अपराध पंजीकृत होते ही नहीं (और ऐसे अपराध कई गुना अधिक होते हैं). इसलिये अपराध संख्या में कमी लाने के स्थान पर अपराधियों को पकड़कर जल्द सजा दिलाना उचित होगा. इस मामले में भी सीमा को लेकर आधे घण्टे तक टाल-मटोल की बात मृतका के साथी ने कही है.
नये कानून बनाने की माँग जोर पकड़ रही है. क्या नये कानून से स्थिति सुधरेगी? कहना मुहाल है, लेकिन कोई भी चीज एबसोल्यूट नहीं होती. समय और परिस्थितियों के अनुसार कानून में बदलाव होना आवश्यक हो जाता है. सख्त कानून के दुरुपयोग की भी बात चलती है. कानून चाहे सख्त हो या नरम, यदि कहीं भी दांडिक प्रावधान होते हैं तो हमेशा उसके दुरुपयोग की सम्भावना होती है. फिर दुरुपयोग करता कौन है और किसको इसका लाभ मिलता है. पुलिसवालों पर अक्सर आरोप लगते रहते हैं कि वह कानून का दुरुपयोग करते हैं. अब पुलिस के ऊपर कौन पुलिस. स्पष्ट है कि कमी तन्त्र में है. कानून में बदलाव के साथ तन्त्र में भी बदलाव की आवश्यकता है.
इस निमित्त न्यायालयों की संख्या में वृद्धि करना चाहिये. सत्ताधारी दल हमेशा इस बात के लिये कहते हैं कि न्यायालयों पर अधिक बोझ है लेकिन न्यायालय क्या आम आदमी बनायेगा. फिर क्यों किसी मुकदमे की समय सीमा निर्धारित नहीं की जाती. आखिर कितनी अधिकतम तारीखें किस तरह के मुकदमे में दी जानी चाहिये, इसका निर्धारण क्यों नहीं होता. क्यों यह निश्चित नहीं किया जाता कि कम से कम कितने मुकदमों का निर्धारण एक न्यायाधीश को करना चाहिये. न्यायिक प्रक्रिया में सुधार लाने का काम क्या विधायिका का नहीं है जिसे इसी निमित्त चुनकर भेजा जाता है.
नैतिकता का घोर पतन इस का जिम्मेदार है. शिवि ने अपना माँस दिया था, दधीचि ने हड्डियां तथा हरिश्चन्द्र ने कर्तव्य पूर्ति हेतु अपनी पत्नी को भी नहीं छोड़ा. किन्तु इतने उच्च नैतिक आदर्शों वाले देश के निवासियों का इतना नैतिक पतन. बहुत आसान होता है यह कहना कि "हम खुद को सुधार लें तो पूरा देश सुधर जायेगा". यदि सब कुछ इतना आसान ही होता तो दुनिया भर के नियम-कानून-कायदों की, पुलिस-प्रशासन-न्यायिक तन्त्र की आवश्यकता ही क्या है. पिछले सैकड़ों वर्षों की गुलामी ने नैतिक बल समाप्त कर दिया है. मानसिक रूप से स्वतन्त्र होने के लिये जिस नैतिक बल की आवश्यकता है वह खत्म हो चुका है.
भ्रष्टाचार इस सब के मूल में है. रोज ही जाने कितने ही अधिकारियों-नेताओं पर अवैध रूप से धन अर्जन करने के आरोप लगते रहते हैं, किन्तु उनमें से अधिकतम आरोप सिद्ध ही नहीं होते. एक बड़े अधिकारी पर आरोप लगाये गये, लेकिन उनका परिणाम क्या निकला, पता नहीं. यह पता ही नहीं चल सका कि गलत कौन था, अधिकारी या आरोप लगाने वाला. दो ही तरीके हैं इससे निजात पाने के, या तो भ्रष्टाचार पर काबू पाया जाये या फिर भ्रष्ट तरीकों से अर्जित धन के उपभोग को काबू में लाया जाये. अवैध सम्पत्ति अर्जित करने के लिये ही तमाम कानूनों का दुरुपयोग किया जाता है. लेकिन इस पर नियन्त्रण करेगा कौन. जिसके पास ताकत है, वे करना नहीं चाहते और जो ऐसा चाहते हैं उनके पास ताकत नहीं. निराशावादी होना अच्छा नहीं लेकिन आशा की किरण भी दूर दूर तक नहीं दिखाई देती.

7 comments:

  1. "नैतिकता का घोर पतन इस का जिम्मेदार है और भ्रष्टाचार इस सब के मूल में है"!
    बढ़िया विश्लेषण। मकर्संक्राती की शुभकामनाये !

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  2. विश्लेषण सही है सौफी सदी ...
    नेतिकता का पतन पिछले १००० वर्षों की गुलामी में छिपा है ... भ्रष्टाचार नेताओं की पृष्ठभूमि में ...

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  3. बेहद सटीक और तथ्यपरक सवाल उठाया है आपने, अभी अभी न्य़ूज में सुना कि ओमप्रकाश चौटाला भी आज तिहाड पहुंच गये. पर उनको तिहाड पहुंचाने वाले भी शायद दूध के धुले नहीं होंगे. मुझे लगता है हम घोर पतन में जा चुके हैं. इसका इलाज क्या होगा? यह सोचने और गहन मंथन करने वाली बात है.

    रामराम

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  4. आशा की किरण दूर दूर तक दिखाई नहीं देती.

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  5. कहते हैं,मौक़ा मिल जाए,तो ईमानदार भी बेईमान बनने से नहीं चूकेंगे। स्थिति चिंताजनक है। फिर भी,मुझे उम्मीद की किरण दिख रही है क्योंकि बदलाव की बयार भी बहने के संकेत मिल रहे हैं।

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  6. काश इस लेख को पढ़ा और समझा जाए !
    शुभकामनायें !

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