Wednesday, February 15, 2012

सैकड़ों की संख्या में ख़बरें और मंहगाई दर.

हर कोई चैनल सबसे कम समय में सबसे अधिक ख़बरें दिखाने का दावा करता है. कोई मिनट के हिसाब से तो कोई संख्या के हिसाब से. मानो कोई जलजला आ गया हो खबरों का. और एंकर तो बिलकुल किसी युद्ध के मोर्चे पर लाईट मशीनगन लेकर तैनात फौजी की तरह खबरों की गोली दागता रहता है. निरीह दर्शक, जिसके आँखों-कानों में दर्जन और सैकडे के हिसाब से ख़बरें घुसेड़ने का पुरजोर प्रयास किया जाता है, चुपचाप मूकदर्शक बनकर बैठा रहता है. कोई कहता है कि गोली की रफ्तार से ख़बरें देखिये तो कोई एक मिनट में सैकड़ा पूरा करने की बात कहता है. पता नहीं ये खबरें दिखाना चाहते हैं या फिर गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्शकों के दिमाग में ख़बरें घुसेड़ने का रिकार्ड बनाना चाहते हैं.
दूसरा तिलिस्म यह समझ में नहीं आता कि दर कम होती है लेकिन मंहगाई बढती जाती है. ये कौन सा अर्थ या अनर्थ शास्त्र है जिसमें सप्लाई बढ़ने पर भी मंहगाई बढती है और घटने पर भी. ये कौन सा चमत्कार है कि मंहगाई की दर तो दूरदर्शन पर कम होती मालूम चलती है, लेकिन दूध-दही, आटा-दाल, शिक्षक-डाक्टर की फीस वैसी की वैसी ही. घर के बजट में बचत का अंश आंशिक मात्रा की तरफ चला जा रहा है. अभी नेताओं की संपत्ति पढ़ रहा था. कुछ के विषय में पढ़कर आंसू आ गए. बेचारे, एक भी कार नहीं, एक भी गाड़ी उनके अपने नाम नहीं. अब पत्नी-बच्चों की बात मत करें. सिद्धांत की बात है, पत्नी भले मर्सिडीज पर चले लेकिन नेताजी तो पैदल ही चलेंगे.
एक फार्मूला था जो बड़ा गोपनीय था, जिसे सिद्ध करने के लिए कई वर्ष घोर तपस्या करनी पड़ती थी, तब जाकर कहीं कोई देवी-देवता प्रसन्न होते थे और सिद्धि प्रदान करते थे. हमारे पाँच पीढियों पूर्व के पुरखे ने एक बार एक को सिद्ध कर लिया और उसके बाद उनका एक रूपया हर वर्ष दस रुपये में बदलता रहा. लेकिन इस सिद्धि की एक लिमिट भी थी. ये आशीर्वाद केवल पाँच साल तक चलता था. 

12 comments:

  1. न्यूज़ चैनल्स की तो कहें ही क्या ....?

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  2. चुपचाप मूकदर्शक बनकर बैठा रहता है... उंहु.
    दर्शक के हाथ में रिमोट रहता है... वह भी फ़ायर कर देता है चुपचाप मूकदर्शक बनकर बैठा रहता है

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  3. खबर के इतने बड़े ढेर में भी क्या सचमुच कोई खबर होती है? इसीलिये टीवी देखना न के बराबर ही हो गया है।

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  4. आजकल न्‍यूल चैनलों का हाल कुछ वैसा ही है जैसे किसी चाय की दुकान पर पढे जाने वाल सस्‍ते अखबार। कुछ क्षेत्रीय चैनलों में तो सब्‍जी मण्‍डी में हुई सांडों की लडाई जैसी खबरें तक प्रसारित की जाती हैं। इतने चैनल हो गये हैं कि शायद बडी खबरें कम पडने लगी हैं। इसलिए गली, मुहल्‍लों तक की खबरें प्रसारित की जाने लगी हैं।

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  5. इन टीवी चैनलों का तो क्या कहना कोई मैग्नेटिक बम के बारे में न भी जानता हो तो ये बनाना और प्लांट करना भी ख़बरों में ही सिखा देते है उसे ! और ऐसे बे-कार और बे-घर लोग हमारे इस देश के कर्णधार है !

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  6. सवेरा होगा कभी तो ..उम्मीद पर दुनिया कायम है.

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  7. बड़ा दिलचस्प वर्णन है। कुछेक जगह तो हंसी रोके नहीं रूकी।

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  8. लेकिन एक तरीके से तेज रफ्तार खबरें दिखाना अच्छा भी हैं.कई बार जब मैं जल्दी में होता हूँ तो इन्हें ही देखता हूँ और वैसे भी विस्तृत खबर कई बार ऊबाउ भी लगती हैं साथ ही दिन में कई बार दिखाई जाती हैं.
    अखबार पढते समय भी कई बार जब हम जल्दी में होते हैँ तो सिर्फ खबरों के शीर्षकों पर ही नजर डालते हैं.बुलेट की रफ्तार से खबरें भी ऐसा ही अनुभव हैं.

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  9. टेलीवीजन तो देखता नहीं, पर छ मर्च को देखूंगा जरूर!

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  10. नेहरू की तपस्या का वरदान तो पिछले ६४ वर्षों से वैलिड है कांग्रेस के पास... हर चैनल पर देश को लूटने वाले वही विदेशी चेहरे देख-देख कर उबकाई आती है अब तो...

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  11. ख़बरें बेचते हैं ये .. जितनी ज्यादा बेचेंगे उतना ही मुनाफा ...

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  12. बवाल है खबर सुनना भी!

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