Monday, January 30, 2012

१-घण्टे बजाने पर रोक नहीं , २ - कश्मीर से मिशनरी को बाहर जाने के आदेश दिए गये !

पिछली पोस्ट में एक लिंक दिया हुआ था जिसमें वर्णित था कि हैदराबाद के एक मंदिर में घंटी-घण्टे बजाने पर रोक लगा दी गयी है. आज उसी वेब-एड्रेस पर अंकित है कि एक स्थानीय अखबार ने बताया कि वहाँ के डीसीपी ने यह कहा है कि वह फोटो पहले की है और वहाँ कोई रोक नहीं है. बहरहाल, हमारे यहाँ पुलिस की छवि ऐसी बन चुकी है कि उसकी कही हुई बातों पर विश्वास मुश्किल से ही होता है. पुलिस को ऐसे प्रयास करने चाहिये कि किसी भी दशा में ऐसे कार्य न हों जिससे किसी प्रकार का तनाव उत्पन्न हो.
आज सुबह एक खबर पर नजर पड़ी जिसमें लिखा था कि सैयद अली शाह गिलानी कश्मीरी मिशनरियों के समर्थन में आगे आये. अंदर पढ़कर और आश्चर्य हुआ जहाँ यह ज्ञात हुआ  कि कश्मीर की शरिया अदालत ने चार ईसाइयों को जम्मू-कश्मीर से हमेशा के लिए बाहर जाने का आदेश सुना दिया है. इन का गुनाह यह था कि इन्होंने कुछ मुस्लिमों को धर्म परिवर्तन कर ईसाई बना दिया था. कमाल है एक धर्म-निरपेक्ष देश में शरई अदालतें. इस पर सब चुप हैं.
कहीं डेरा से समर्थन माँगा जाता है तो कहीं बुखारी किसी दल को समर्थन देने का फतवा सा देते हुए नजर आते हैं. हर दल धर्मनिरपेक्ष है लेकिन नीतियाँ आदमी के लिए नहीं, उसकी जाति, उसके धर्म के हिसाब से बनने के वायदे किये जा रहें हैं. धन्य हैं देश के ये कर्णधार.

Saturday, January 28, 2012

भक्तों को घंटे-घन्टी बजाने से रोक...इसे पढ़कर तो बहुत आश्चर्य हुआ और क्षोभ भी...

क्या ऐसा भी हो सकता है? आँध्रप्रदेश सरकार की साम्प्रदायिकता का एक अजीब और दुखद उदाहरण सामने आया है | हैदराबाद में चार मीनार के पास स्थित भाग्यलक्ष्मी जी के मंदिर पर ‘आरती के समय घंटे’ बजाने पर रोक है; जिसके लिए प्रशासन ने दो महिला कांस्टेबल भी भक्तों को घंटे-घन्टी बजाने से रोकने के लिए लगाये है| नीचे  का फोटो देखकर आपको हकीकत का अंदाजा लग जायेगा | लिंक यह है.|

Thursday, January 26, 2012

मल्लिका जी, क्यों उदास हैं!


मल्लिका जी, क्यों उदास हैं,
पुरुस्कार न मिलने का गम या अन्य कारण खास हैं,
आपने अपनी प्रोफाइल क्यों छुपाई है,
पहले की ही है या अभी अभी बनाई है,
यूं तो आपका नाम ही पारदर्शिता का सिनोनिमस है,
लेकिन यूं छुपकर आप खुद क्यों अनोनिमस हैं
जरा सामने तो आईये
रुख से पर्दा तो हटाईये
यह माना कि पुरुस्कार न मिल पाने से आपको कष्ट हुआ होगा
कोई बन्दा खुश तो कोई रुष्ट हुआ होगा
अरे यह तो दुनिया का दस्तूर है
हमारे हक में होने वाला फैसला ही हमें मंजूर है
यदि आपको खराब लगा हो तो हमारी सलाह अपनाइये
एक सम्मेलन अपने यहां करवाईये
सभी ब्लागर्स को ससम्मान बुलाइये
और उसमें हमें मुख्य अतिथि बनवाईये
अगर सभी बिलागरान को प्रेम से बुलायेंगी
उनके आतिथ्य का जिम्मा उठायेंगी
तो सच मानिये आपको भी आनन्द आयेगा
और पुरुस्कृत न होने का मलाल भी मिट जायेगा..

भूमिका - पुरूस्कारों को लेकर एक ब्लॉग पर जोरदार बहस छिड़ी थी, जिसमें एक बड़ी अच्छी टिप्पणी मल्लिका नामी प्रोफाइल से की गयी थी, बस फिर ऐसे ही चार-पाँच लाइनें लिख दीं, बतौर हास्य.

Saturday, January 21, 2012

मतदान अनिवार्य होना चाहिये

चुनाव आयोग ने मतदाताओं को अधिक मतदान हेतु प्रेरित करने के लिए अपने एम्बेसडर नियुक्त किये हैं जो विभिन्न नगरों का दौरा कर मतदाताओं को प्रोत्साहित करने का कार्य कर रहे हैं.  एक दो नेताओं के भी बयान समाचारपत्रों में पढ़ने को मिले हैं जिसमें उन्होंने अधिकाधिक मतदान करने की अपील की है.
१. क्या जनप्रतिनिधि चुनना विवाह करने से कम महत्वपूर्ण कार्य है, क्योंकि एक व्यस्क पुरुष को विवाह करने के लिए कम से कम २१ वर्ष का होना आवश्यक है जबकि सरकार बनाने के लिए जनप्रतिनिधि को चुनने के लिए विवाह की उम्र से ३ वर्ष कम होना पर्याप्त है. 
२. मतदान का प्रतिशत न्यूनतम ३५ से अधिकतम ६० रहता है. अब इसे और सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर पता चलता है कि डाले गए मतों में से अधिकांश मत ३-४ प्रत्याशियों के मध्य बंट जाते हैं. जिसमें से पुनः देखने पर ज्ञात होता है कि जो प्रत्याशी १५-२५ प्रतिशत मत पा जाता है वह विजयी बन जाता है. 
३. अब यदि बहुमत की प्रक्रिया को माना जाए तो ५१ = १०० होना चाहिये, लेकिन यहाँ स्थिति यह है कि १५ से २५ = १००. आगे फिर देखें तो पता चलता है कि सदन में जिस या जिन दलों के पास निर्वाचित प्रतिनिधियों का  ५० प्रतिशत +१ होता है वह या वे दल सरकार का गठन करते हैं. तात्पर्य यह कि कुल मतों में से ७-१४ प्रतिशत  मत ही सरकार बनाने के लिए उत्तरदायी होते हैं.
४. दलों, नेताओं पर अविश्वसनीयता, जातीयता- क्षेत्रीयता और धार्मिक मुद्दों का उदय तथा इसके अलावा भी कई विभिन्न कारण हैं जिनके चलते मतदाता वोट डालने के प्रति उदासीन हो चुका है. मध्य वर्ग इसे छुट्टी के तौर पर मनाता है और उच्च वर्ग भी मतदान को किसी अन्य दृष्टिकोण से देखता है.
५. मतदान करने के लिए लोगों के अलग पैमाने हैं. कई बार यह भी देखा गया है कि जातीय या धार्मिक समीकरणों के चलते अच्छी छवि के प्रत्याशी हार गए. जातीय और धार्मिक पैमाने न केवल मतदान में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, बल्कि टिकट ही इन्हीं समीकरणों को देखकर दिए जाते हैं. शायद जनगणना रिपोर्ट का सबसे अधिक प्रयोग चुनाव में समीकरण बनाने के लिए ही किया जाता होगा.
६. अब प्रश्न यह उठता है कि जो लोग अगले पाँच सालों तक देश या प्रदेश के सिरमौर बनकर बैठेंगे, जो करोड़ों लोगों के भाग्यविधाता बनकर बैठेंगे, उनके चुनने में इतनी उदासीनता! और जब लोग स्वेच्छा से घर से बाहर निकलकर मतदान करने में दिलचस्पी न लें तो क्या करना चाहिये?
७. अनिवार्य मतदान - ही एक मात्र और अच्छा विकल्प है. जब हम स्वेच्छा से अपने भाग्य-विधाताओं को चुनने में लापरवाही बरत सकते हैं तो क्या विधायिका की यह जिम्मेदारी नहीं बनती कि वह एक ऐसा कानून बनाये जिसके द्वारा कम से कम हर मतदाता (विशेष परिस्थितियों को छोड़कर) बूथ तक आये.
८- और यह निश्चित मानिये कि यदि हर मतदाता बूथ तक आएगा तो उनमें से ३-४ प्रतिशत मतदाता ही ऐसे होंगे जो मत नहीं डालेंगे. और जब वोटिंग प्रतिशत बढ़ेगा तो स्थिर सरकार बनने की सम्भावना बढ़ेगी और साथ ही छोटे दलों की राजनैतिक जोड़-तोड़ भी बंद हो सकेगी.
९- जो व्यक्ति अनिवार्य मतदान को असंवैधानिक बताते हैं, वही व्यक्ति अलग - अलग मंचों पर जन सामान्य को यह पाठ पढाते नहीं चूकते कि अधिकारों से पहले कर्तव्य निभाना चाहिये तभी अधिकारों की बात करनी चाहिये.  यहाँ यह बताने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती कि हमारे देश में निरक्षरता का प्रतिशत कितना अधिक है और जो पढ़े लिखे भी हैं वे भी अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु भोले भाले लोगों को बरगलाने में नहीं चूकते.
१०. समय के अनुसार कानून में बदलाव अपरिहार्य हो जाते हैं. जो चीजें कल तक अग्राह्य थीं, आज उन्हें स्वीकार कर लिया गया है. जिन दुष्कर्मों के लिए कल तक कोई कानून नहीं था, आज उनके लिए क़ानून बनाये गए हैं और उनमें दाण्डिक प्रावधान किये गए हैं.
११. स्वेच्छा से तो हमारे देश में अधिकतर चीजें होती ही नहीं. भीड़ भरे स्थानों में लोगों को स्वेच्छा से कतार में रहना चाहिये, नहीं रहते. सडकों को गन्दा नहीं करना चाहिये, करते हैं. धूम्रपान नहीं करना चाहिये, करते हैं. स्वेच्छा से हम लोग वही काम करते हैं जिससे दो पैसे का फायदा हो, बिना फायदे के हम कुछ भी स्वैच्छिक नहीं करते. और स्वेच्छा तो छोडिये, यदि क़ानून की नजर से बचने का जुगाड़ हो तो कानून भी बेझिझक तोड़ते हैं. ऐसे में स्वैच्छिक मतदान से तो मतदान का प्रतिशत नहीं बढ़ने वाला.
१२. अनिवार्य मतदान में कुछ जमीनी कठिनाइयाँ हो सकती हैं, लेकिन उनका हल खोजा जा सकता है. उसके लिए कुछ उचित प्रावधान किये जा सकते हैं. आखिर जो लोग पाँच साल तक हम सब लोगों की तक़दीर के मालिक बनकर बैठेंगे, उनके लिए एक दिन अनिवार्य रूप से क्यों नहीं दिया जा सकता.

Wednesday, January 18, 2012

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अपनी अपनी परिभाषाएँ .

जब बात होती थी मकबूल फिदा हुसैन की, तो हमारे यहाँ बड़े बड़े नेता, समाजसेवी, पत्रकार  धर्मनिरपेक्षता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देते हुए रुदन करने लगते थे कि हुसैन का विरोध करने वाले फासिस्ट हैं, नाजी हैं. ऐसे ही कई स्वनामधन्य पत्रकार, नेता, समाजसेवी और कई बहुत पढ़े लिखे लोग तथा  एकाधिक  विशेष ग्रुप  से सम्बन्धित व्यक्ति, हुसैन द्वारा बनाई गई देवी-देवताओं की नग्न तस्वीरों का खुला समर्थन करते थे और अभी भी करते हैं तथा हुसैन द्वारा बनाई गई ऐसी पेंटिंगों का विरोध करने वाले लोगों पर हर प्रकार से वार करने पर उतारू रहते थे. उनका कहना होता था कि ये तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन है, संविधान में दी गई स्वतंत्रता का हनन है. लोगों को कला की समझ नहीं है, वगैरा. 
किन्तु बात जब सलमान रुश्दी या तस्लीमा नसरीन की आती है तब यह लोग सामने नहीं आते. पता नहीं उस समय ये लोग वैसे ही अभिव्यक्त करने में क्यों परहेज करने लगते हैं? क्या सलमान रुश्दी के भारत आने का विरोध और भारत आने से रोकना संविधान में दी गई स्वतंत्रता पर हमला नहीं है. क्या तस्लीमा नसरीन की भारत यात्रा का विरोध और उन पर सैकड़ों लोगों के सामने किया गया हमला, भारतीय संविधान पर सीधा हमला नहीं है? क्या सलमान रुश्दी को अपनी बात कहने से बलात् रोकना अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का सीधा सीधा हनन नहीं है? क्या तस्लीमा नसरीन को अपने विचार व्यक्त करने से जबरन रोकने वाले फासिस्ट नहीं हैं?  हर चीज के लिए यहाँ अलग पैमाने गढ़ लिए गए हैं, अपनी सुविधानुसार. और यही पैमाने एक दिन सम्पूर्ण विनाश का कारण बनते हैं, देखते है कि कितने दिनों हम इन अलग अलग पैमानों पर चलकर अपने लिए विनाश से बचा सकते हैं. 
    

Tuesday, January 17, 2012

बस यूं ही.


उसकी आंखों में समंदर सा उतर आया था,
डूब जाता न भला और तो क्या करता मैं .

कोशिशें कर न सका उसको भूल पाने की
जिस्म से रूह कहीं यूं भी जुदा होती है.

याद आता रहा वो महफिल-ओ-तन्हाई मे
इश्क क्या चीज है जो दिल में उतर जाती है.

खाने को मयस्सर हुए न निवाले दो उसको
तेरी दुनिया में बसर यूँ भी खुदा होती है.

Sunday, January 15, 2012

गृह सचिव के पास डाक


सूबे में कौन है असली प्रमुख सचिव गृह?दैनिक जागरण १४/०१/२०१२