Sunday, August 25, 2013

क्या हमारे यहाँ सही अर्थों में लोकतन्त्रिक व्यवस्था लागू है?

हम लोग अपने सांसद-विधायकों को चुनते हैं. पहली बात तो यह कि मतदान का प्रतिशत औसत ४०-४५% रहता है. उसके बाद इसमें आधे से अधिक मत जीतने वाले के अलावा अन्य प्रत्याशियों में बंट जाते हैं, मतलब यह कि कुल मतों का १५-२०% पाने वाले प्रत्याशी को जीत हासिल हो जाती है, फिर इसका ५१% वाले सत्ता पा जाते हैं. सार यह कि सत्ता किसे देनी है यह कुल मतों के दसवें हिस्से से निर्धारित होता है. 

अब आते हैं दूसरी बात पर.  लोकतन्त्र की दुहाई देने वाले राजनीतिक दल मतदाताओं के लिये तो लोकतान्त्रिक व्यवस्था की बात करते हैं लेकिन उनके स्वयं के अन्दर न तो पारदर्शिता है और न ही कोई लोकतान्त्रिक व्यवस्था. पारदर्शिता के नाम पर एक मात्र अधिनियम सूचना का अधिकार अधिनियम, २००५ है जिसके दायरे में कोई राजनीतिक दल नहीं रहना चाहता. क्यों? क्या राजनीतिक दलों के पदाधिकारी/ कार्यकर्ता भारत के नागरिक नहीं हैं. वे स्वयं सूचना माँग सकते हैं लेकिन सूचना देने में इतना कष्ट!

मूल मुद्दा था लोकतान्त्रिक व्यवस्था का. आमतौर पर सबसे बड़े दल के सांसद/विधायक दल का नेता सरकार बनाने का दावा करता है. लेकिन इन दलों में नेता कैसे चुना जाता है? बड़ी बात यह है कि लोकतन्त्र की दुहाई देने वाले अधिकतर दलों के पदाधिकारियों में चुनाव न कर मनोनयन किया जाता है. और इन दलों के अन्दर कोई ऐसी व्यवस्था नहीं कि चुनाव होने के बाद लोकतान्त्रिक तरीके से अपने दल के नेता का चुनाव किया जाये. कहीं सांसद/विधायक यह कह देते हैं कि हमारे दल के मुखिया जिसे चुनेंगे वह स्वीकार्य होगा. कहीं पहले से ही किसी व्यक्ति को बतौर मुखिया प्रोजेक्ट कर दिया जाता है. क्या लोकतन्त्र केवल आम मतदाता के लिये है, दलों में लोकतन्त्र नहीं होना चाहिये.

ऐसे में जो मुखिया बनता है वह चुना हुआ कहाँ से हुआ, और जब उसका चुनाव सीधे नहीं हुआ तो फिर किसके प्रति उत्तरदायी हुआ. इससे तो बेहतर है कि राज्य और देश के प्रमुख का चुनाव भी सीधे ही जनता के द्वारा कराया जाये जिससे कम से कम जनता और मुखिया दोनों ही एक दूसरे के प्रति सीधे ही उत्तरदायी हो सकें.