पिछली पोस्ट पर जिसमें मैंने गुलाब की एक कली की तस्वीरें लगाई थीं,आशुतोष जी की ह्रदय को छूने वाली एक टिप्पणी ने मुझे गेंहूँ और गुलाब की याद दिला दी. यह निबंध शायद हाईस्कूल में पढ़ा था और उस समय इसकी महत्ता का भान नहीं था. बहरहाल,गेहूँ की तस्वीरें तो नहीं लगा सका,लेकिन राह चलते एक जगह यह दृश्य दिखाई दिया. कई पूरे के पूरे परिवार जिनमें ऐसे बच्चे भी शामिल हैं,जिनकी उम्र स्कूल जाने की है,पढ़ने-लिखने की है,खेलने-कूदने की है,हमारे लिए खाद्यान्न उपलब्ध कराने में लगे हुए हैं. कारण चाहे कुछ भी हों,स्थितियाँ विकराल हैं. हर वय के लोग कार्य में लगे हुए हैं,चौदह वर्ष से कम उम्र के बच्चे भी,जिनसे काम कराना कानूनी अपराध है. लेकिन फिर एक यक्ष प्रश्न सामने उठता है,यदि काम पर नहीं जायेंगे तो खायेंगे क्या,क्या आप दोगे खाने को? यह सवाल मुझसे एक बच्चे ने ही कर मुझे निरुत्तर कर दिया. प्रशासन के एक मध्यम अनुक्रम के अधिकारी के यहाँ ही दस वर्ष का बच्चा कार्य कर रहा था. जब शिकायत हुई तो हमेशा की तरह निष्कर्ष कुछ नहीं निकला. नीतियाँ और योजनायें बनाना एक अलग चीज है और उनका क्रियान्वयन बिलकुल अलग. यहाँ किसी प्रकार का लिंग-भेद भी नहीं और गुलाब भी नहीं,जिन बच्चों को फूलों से खेलना चाहिये,वे हाथों में हँसिया- खुरपी लेकर डटे हुए हैं. छोटी सी सुकोमल बच्चियाँ भी इनमें देखी जा सकती हैं. दोष किसी का भी हो,सजा इन बच्चों को क्यों?
एक बात है, गुलाब भी तभी अच्छे लगते हैं जब गेहूँ का ब्योंत हो...
ReplyDeleteबच्चे का प्रश्न आज़ादी के इतने दशक बाद आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना विदेशी शासन के दिनों में था, यह वाकई शर्मनाक है।
ReplyDeleteजिनको स्वयं फसल बन बढ़ना चाहिये, वे औरों की फसल काट रहे हैं।
ReplyDelete'स्कूल चलें हम' बस गीत ही बनकर रह गया!
ReplyDeleteमेरा देश महान!
ReplyDeleteदूसरा पहलू भी है, ये लोग गरीब हैं, और देश की क्या परिस्थिति है हर कोई वाकिफ है मगर ये लोग कमसे कम अपने बच्चो को पेट पालना तो सिखा रहे है! आजकल की हमारी नालायक औलादों को तो अपने खुद के सर के बाल सवारने के लिए कंघी पकडनी नहीं आती !
ReplyDeleteसच में बहुत तकलीफदेह है यह सच्चाई ......
ReplyDeleteये समस्या इतनी आसानी से नहीं सुलझने वाली ... शर्मनाक है देश का इतिहास इस समस्या को लेकर ...
ReplyDeleteकानून तो बहुत हैं..मानता कौन है..
ReplyDeleteपता नहीं, जो पढ़ रहे हैं, वे कौन निहाल कर दे रहे हैं।
ReplyDeleteकितने दसवीं पास मिलेंगे जो न ढंग से वाक्य लिख सकते हैं न जोड़ घटाना जानते हैं।
अच्छा लगता है सोचना कि इनको स्कूल जाना चाहिये पर वह स्कूल (माई फुट) जो व्यक्ति को किसी भी काम के लिये नकारा बनाता हो, क्या फायदा?
@ज्ञानदत्त पाण्डेय जी- मैं आपकी बात से सहमत हूँ कि वह स्कूल भी क्या जो ऐसे उत्पाद पैदा करे जो अपना नाम भी न लिख पायें, लेकिन फिर भी ये उम्र कम से कम खेत में काम करने की तो नहीं.
ReplyDeleteगुलाबों से तो गेहूं अच्छा है इनका भी पेट पाल रहा है और हम जैसों का भी । स्कूलों का जो हाल है...........हम भी जानते हैं और आप भी । पर बात आपकी सच है कि यह उम्र तो अपने आप को बनाने की है ।
ReplyDeleteजरुरत है सही मार्ग दर्शन की ....
ReplyDeleteसरकार तो स्कूलों में बच्चों को हर चीज मुहैया करवा ही रही है ...
यहाँ तो गाँव के बच्चे अब पढाई की और अग्रसर हो रहे हैं ....
यह एक विचारणीय तथ्य है। भारत में परम्परागत रूप से कृषि कार्य में परिवार के सभी सदस्य, वयस्क एवं अवयस्क, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लगे हुए हैं। यदि ऐसे बच्चों का बचपन एवं उनकी शिक्षा पभावित हो रही है, तो उन्हें बाल श्रमिक की श्रेणी में क्यों न रखा जाए?
ReplyDeleteदोबारा आया हूँ, आना पड़ा। एक हम हैं जो गेहुँ बीनते बच्चों को देखकर भी भावुक हो जाते हैं(होना भी चाहिये) और उधर.....? ...http://swapnamanjusha.blogspot.in/2012/02/blog-post_23.html
ReplyDelete@संजय जी-मैं भी देखने जा रहा हूँ....
ReplyDeleteवाकई ये कैसा बचपन है! इनके दिमाग में अभी से ये बातें. इतनी खूबसूरत गुडिया सी बच्ची और ये सिखाया गया!
ReplyDeleteसंवेदनशील पोस्ट!
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