चुनाव आयोग ने मतदाताओं को अधिक मतदान हेतु प्रेरित करने के लिए अपने एम्बेसडर नियुक्त किये हैं जो विभिन्न नगरों का दौरा कर मतदाताओं को प्रोत्साहित करने का कार्य कर रहे हैं. एक दो नेताओं के भी बयान समाचारपत्रों में पढ़ने को मिले हैं जिसमें उन्होंने अधिकाधिक मतदान करने की अपील की है.
१. क्या जनप्रतिनिधि चुनना विवाह करने से कम महत्वपूर्ण कार्य है, क्योंकि एक व्यस्क पुरुष को विवाह करने के लिए कम से कम २१ वर्ष का होना आवश्यक है जबकि सरकार बनाने के लिए जनप्रतिनिधि को चुनने के लिए विवाह की उम्र से ३ वर्ष कम होना पर्याप्त है.
२. मतदान का प्रतिशत न्यूनतम ३५ से अधिकतम ६० रहता है. अब इसे और सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर पता चलता है कि डाले गए मतों में से अधिकांश मत ३-४ प्रत्याशियों के मध्य बंट जाते हैं. जिसमें से पुनः देखने पर ज्ञात होता है कि जो प्रत्याशी १५-२५ प्रतिशत मत पा जाता है वह विजयी बन जाता है.
३. अब यदि बहुमत की प्रक्रिया को माना जाए तो ५१ = १०० होना चाहिये, लेकिन यहाँ स्थिति यह है कि १५ से २५ = १००. आगे फिर देखें तो पता चलता है कि सदन में जिस या जिन दलों के पास निर्वाचित प्रतिनिधियों का ५० प्रतिशत +१ होता है वह या वे दल सरकार का गठन करते हैं. तात्पर्य यह कि कुल मतों में से ७-१४ प्रतिशत मत ही सरकार बनाने के लिए उत्तरदायी होते हैं.
४. दलों, नेताओं पर अविश्वसनीयता, जातीयता- क्षेत्रीयता और धार्मिक मुद्दों का उदय तथा इसके अलावा भी कई विभिन्न कारण हैं जिनके चलते मतदाता वोट डालने के प्रति उदासीन हो चुका है. मध्य वर्ग इसे छुट्टी के तौर पर मनाता है और उच्च वर्ग भी मतदान को किसी अन्य दृष्टिकोण से देखता है.
५. मतदान करने के लिए लोगों के अलग पैमाने हैं. कई बार यह भी देखा गया है कि जातीय या धार्मिक समीकरणों के चलते अच्छी छवि के प्रत्याशी हार गए. जातीय और धार्मिक पैमाने न केवल मतदान में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, बल्कि टिकट ही इन्हीं समीकरणों को देखकर दिए जाते हैं. शायद जनगणना रिपोर्ट का सबसे अधिक प्रयोग चुनाव में समीकरण बनाने के लिए ही किया जाता होगा.
६. अब प्रश्न यह उठता है कि जो लोग अगले पाँच सालों तक देश या प्रदेश के सिरमौर बनकर बैठेंगे, जो करोड़ों लोगों के भाग्यविधाता बनकर बैठेंगे, उनके चुनने में इतनी उदासीनता! और जब लोग स्वेच्छा से घर से बाहर निकलकर मतदान करने में दिलचस्पी न लें तो क्या करना चाहिये?
७. अनिवार्य मतदान - ही एक मात्र और अच्छा विकल्प है. जब हम स्वेच्छा से अपने भाग्य-विधाताओं को चुनने में लापरवाही बरत सकते हैं तो क्या विधायिका की यह जिम्मेदारी नहीं बनती कि वह एक ऐसा कानून बनाये जिसके द्वारा कम से कम हर मतदाता (विशेष परिस्थितियों को छोड़कर) बूथ तक आये.
८- और यह निश्चित मानिये कि यदि हर मतदाता बूथ तक आएगा तो उनमें से ३-४ प्रतिशत मतदाता ही ऐसे होंगे जो मत नहीं डालेंगे. और जब वोटिंग प्रतिशत बढ़ेगा तो स्थिर सरकार बनने की सम्भावना बढ़ेगी और साथ ही छोटे दलों की राजनैतिक जोड़-तोड़ भी बंद हो सकेगी.
९- जो व्यक्ति अनिवार्य मतदान को असंवैधानिक बताते हैं, वही व्यक्ति अलग - अलग मंचों पर जन सामान्य को यह पाठ पढाते नहीं चूकते कि अधिकारों से पहले कर्तव्य निभाना चाहिये तभी अधिकारों की बात करनी चाहिये. यहाँ यह बताने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती कि हमारे देश में निरक्षरता का प्रतिशत कितना अधिक है और जो पढ़े लिखे भी हैं वे भी अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु भोले भाले लोगों को बरगलाने में नहीं चूकते.
१०. समय के अनुसार कानून में बदलाव अपरिहार्य हो जाते हैं. जो चीजें कल तक अग्राह्य थीं, आज उन्हें स्वीकार कर लिया गया है. जिन दुष्कर्मों के लिए कल तक कोई कानून नहीं था, आज उनके लिए क़ानून बनाये गए हैं और उनमें दाण्डिक प्रावधान किये गए हैं.
११. स्वेच्छा से तो हमारे देश में अधिकतर चीजें होती ही नहीं. भीड़ भरे स्थानों में लोगों को स्वेच्छा से कतार में रहना चाहिये, नहीं रहते. सडकों को गन्दा नहीं करना चाहिये, करते हैं. धूम्रपान नहीं करना चाहिये, करते हैं. स्वेच्छा से हम लोग वही काम करते हैं जिससे दो पैसे का फायदा हो, बिना फायदे के हम कुछ भी स्वैच्छिक नहीं करते. और स्वेच्छा तो छोडिये, यदि क़ानून की नजर से बचने का जुगाड़ हो तो कानून भी बेझिझक तोड़ते हैं. ऐसे में स्वैच्छिक मतदान से तो मतदान का प्रतिशत नहीं बढ़ने वाला.
१२. अनिवार्य मतदान में कुछ जमीनी कठिनाइयाँ हो सकती हैं, लेकिन उनका हल खोजा जा सकता है. उसके लिए कुछ उचित प्रावधान किये जा सकते हैं. आखिर जो लोग पाँच साल तक हम सब लोगों की तक़दीर के मालिक बनकर बैठेंगे, उनके लिए एक दिन अनिवार्य रूप से क्यों नहीं दिया जा सकता.