जो मन में आया वह सब आपके सामने. सर पर मैला ढ़ोते लोगों को देखकर मन कराह उठता है. मुझे लगता है कि सहानुभूति के स्थान पर स्वानुभूति अपनाना बेहतर है. बढ़ती जनसंख्या, पर्यावरण का विनाश और पानी की बर्बादी बहुत तकलीफ देती है. दर्द उस समय और भी बढ़ जाता है जब कानून का पालन कराने वाले ही उसे तुड़वाते हैं.
ye kon chitrakar hae .bdhai is ankhi post hetu.
ReplyDeleteये ही नियति है
ReplyDeleteये भी खत्म हो जायगा जल्दी ही अगर नहीं जागे तो ...
ReplyDeleteजीवन का अनकहा सत्य..
ReplyDeleteहमारी सहिष्णुता का चरम और परम का अंकन
ReplyDeleteसर्वम् दुःखम् सर्वम् क्षणिकम् ...
ReplyDeleteअस्तित्व सिमटता जा रहा, दुखद है पर सत्य.
ReplyDelete...Khatre mein hai.
ReplyDeleteबहुत सुंदर, प्रस्तुति
ReplyDeleteMY RESENT POST...काव्यान्जलि... तुम्हारा चेहरा.
नदियों का वर्तमान ही तय करेगा हमारा भविष्य।
ReplyDeleteबहुत सुंदर । मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन रचना....
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग
विचार बोध पर आपका हार्दिक स्वागत है।
रामनवमी की शुभकामनाएँ।
प्रश्न देती सार्थक पोस्ट ...
ReplyDeleteसुंदर प्रयास ...
शुभकामनायें ...
सार्थक और सामयिक पोस्ट, आभार.
ReplyDeleteकृपया मेरे ब्लॉग" meri kavitayen" की नयी पोस्ट पर भी पधारें, आभारी होऊंगा.
सिमट रहा है अस्तित्व । ना जागे तो मिट ही जायेगा ।
ReplyDeleteपिछले कुछ दिनों से अधिक व्यस्त रहा इसलिए आपके ब्लॉग पर आने में देरी के लिए क्षमा चाहता हूँ...
ReplyDelete....... अस्तित्व सिमटता जा रहा